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५२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
केशों अथवा पक्षियों की पूंछों या परों से बने हुए प्रतिलेखन के स्थान पर वानस्पतिक रेशों यथा-- पटसन, मूंज आदि के प्रतिलेखन रखता हो और इस कारण उसे कूचंक कहा जाता हो । आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में शय्या के लिए ग्रहण किये जानेवाले विभिन्न प्रकार के घासों के उल्लेख में 'कुच्च' नामक घास का भी उल्लेख है ।
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कूर्चक शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में अन्य विकल्प यह भी है किकल्पसूत्र में बोटिक या यापनीय संघ के प्रथम आचार्य शिवभूति को कोत्स गोत्रीय कहा गया है । उसमें 'कोच्छ सिवभूई' ऐसा उल्लेख है ।" यह भी हो सकता है कि शिवभूति को परम्परा के ये श्रमण अपने को कोच्छग (कोत्सक) कहते हों और यही कोच्छग शब्द क्रमशः ध्वनि परिवर्तन के कारण कोच्छग — कोच्चग — कुच्चग हो गया हो और उसका संस्कृत रूपान्तरण कूर्चक कर लिया गया हो। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण यह है कि ओसवालों के 'बुरड' गोत्र के कुछ लोग आज अपने को 'बरार' लिखते हैं । यह ध्वनिपरिवर्तन ऐसे हुआ है - बुरड - बरड । बरड को अंग्रेजी में Barar लिखा जाता है, जिसका पुनः नागरीकरण करके बरार लिखा जाने लगा है । ऐसी स्थिति में यह मानना होगा कि शिवभूति की परम्परा का अचेलक संघ ही कूर्चक कहलाया हो । किन्तु यहाँ समस्या यह है कि एक अभिलेख में यापनीयों और कूर्चकों का एक साथ उल्लेख हुआ है | अतः यह मानना होगा कि यापनीय एवं कूर्चक भिन्न-भिन्न होकर भी एक ही परम्परा के थे । शिवभूति की परम्परा ही आगे चलकर दो भागों में बँट गई, उनमें से एक यापनीय कहलाती हो और दूसरी कूर्चक । यह भी सम्भव है कि कूर्चक जहाँ वानस्पतिक रेशों का प्रतिलेखन रखते होंगे, वहाँ यापनीय मयूरपिच्छी ।
पुनः कूर्चक शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि यह गोच्छग से बना हो । श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिलेखन या पिच्छी के लिए गोछा या गोच्छ्ग शब्द का प्रयोग आज भी होता है । यह प्राकृत 'गोच्छग' शब्द, जो कि संस्कृत गुच्छ से बना है, तमिल या कन्नड में 'ग' का 'क' होने से उसे कोच्छक कहा जाता हो । क्योंकि तमिल में 'ग' आदि तृतीय व्यञ्जन नहीं होते हैं । अतः गोच्छग का कोच्चक हुआ होगा और इसी 'कोच्चक' का संस्कृत रूपान्तरण कूर्चक किया गया होगा । दूसरे शब्दों में गोछा (गोच्छग) रखने वाले जैन श्रमण ही कूर्चक कहलाये हों ।
१. कोच्छं सिवभूइं —— कल्पसूत्रम् ( प्राकृत भारती ) २२३ / ९ ।
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