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________________ यापनीय संघ के गण और अन्वय : ५३ अतः यह मानना भी पूर्णतः निराधार तो नहीं है कि दाढ़ी-मूंछ या कंघी रखनेवाले श्रमण कूर्चक कहलाते थे। फिर भी अधिक सत्य तो यही लगता है कि विशिष्ट प्रकार के वानस्पतिक रेशों से बने प्रतिलेखन (कुच्चगया-गोच्छग) रखने के कारण ही जैन श्रमणों का एक वर्ग कूर्चक कहलाया होगा। श्वेताम्बर परम्परा में आज भी मयूरपिच्छि आदि के स्थान पर ऊन या अन्य वानस्पतिक रेशों के गोच्छग रखने का प्रचलन है । लेखक ने बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व तक जैन स्थानकों में प्रमार्जन के लिए पटसन की कंचियों का प्रयोग होते देखा है। हो सकता है कि जो श्वेतपट महाश्रमण संघ दक्षिण गया था, वह पटसन या मूंज आदि के गोच्छग रखता हो और इसी कारण कूर्चक कहलाया हो। अतः इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि दाढ़ी-मछ, कंघी या वानस्पतिक रेशों के गोच्छग रखनेवाला श्वेतपट महाश्रमण संघ ही कूर्चक हो । क्योंकि उस अभिलेख में श्वेतपट महाश्रमण संघ का उल्लेख नहीं है, मात्र निर्ग्रन्थ, यापनोय और कर्चक का उल्लेख है अतः निर्ग्रन्थ और यापनीय से भिन्न कूर्चक श्वेताम्बरों का वाचक भी हो सकता है। श्वेताम्बरों (श्वेतपट महाश्रमण संघ) का हो एक वर्ग कूर्चक कहा जाता हो, इसके पक्ष में निम्न तथ्यों को प्रस्तुत किया जा सकता है (१) यदि कूर्चक का अर्थ दाढ़ी-मूंछ से युक्त श्रमण-ऐसा करें तो यह निश्चित है कि जिनकल्पी अचेल निर्ग्रन्थों की अपेक्षा स्थविरकल्पी सचेल परम्परा में केश लोच का अधिकतम अन्तराल एक वर्ष का मान्य होने से उन्हें ही कूर्चक कहा गया होगा। आज भी श्वेताम्बर मुनियों को वर्ष के अधिकतम समय में दाढ़ी से युक्त देखा जाता है। (२) यदि कुर्चक का अर्थ कंघी रखने वाला करें तो यह तर्क भी श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में जाता है क्योंकि केश लोच का अन्तराल अधिक होने से केशों में जीवोत्पत्ति न हो इस दृष्टि से अधिकांश श्वेताम्बर मुनि आज भी कंघी रखते हैं। यद्यपि इस सन्दर्भ में आगमिक निर्देशों का अभाव है। (३) यदि कूर्चक का सम्बन्ध मयूर-पिच्छि से भिन्न पटसन आदि वानस्पतिक रेशों या ऊन आदि की कूची या गोच्छग से माना जाये तो यह तर्क भी कूर्चकों के श्वेताम्बर होने के पक्ष में जाता है, क्योंकि उनमें आज भी प्रतिलेखन को गोच्छग (गोछा) कहा जाता है-श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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