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________________ यापनीय संघ के गण और अन्वय : ५१ विधान है । यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में भी उत्कृष्ट मध्य और जघन्य भेद से एक मास, दो मास और चार मास में लोच का विधान है अतः इस वर्ग की दाढ़ी अधिक बढ़ने की सम्भावना नहीं है । यदि दाढ़ी के आधार पर ही कोई संघ कूर्चक कहलाया हो तो वह वही होगा जिसके आगम वर्ष में एक बार ही लोच का विधान करते हों। प्राकृत में 'कुच्चग' शब्द दाढ़ी के अतिरिक्त कंघी और कूचीव्यञ्जना से प्रतिलेखन या रजोहरण-इन अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है। अतः कूर्चक शब्द से केवल दाढ़ी रखनेवाले को गृहीत करना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। 'कुच्चग' (कूर्चक) शब्द का प्रयोग कंघी या कूचि रखने वाला के सम्बन्ध में भी हो सकता है। हो सकता है कि जो स्थविरकल्पी श्रमण वर्ष में एक ही बार केशलोच करते हों, वे अपने बढ़े हुए बालों में जुएँ आदि जीवोत्पत्ति नहीं हो, इस अहिंसक दृष्टि से अपने पास कंघी रखने लगे हों । स्मरण रहे श्वेताम्बर साधुओं में आगमिक निर्देश न होने पर भी आज कंघा रखा जाता है । अतः उन्हें कुच्चग (कूर्चक) कहा जाता होगा। पुनः रजोहरण या पिच्छि भी एक प्रकार की कूचि ही थी, अतः यह भी सम्भव है कि विशिष्ट प्रकार के रजोहरण या पिच्छि रखने के कारण भी जैन साधुओं का एक वर्ग कूर्चक कहलाता हो। आचारांगचूर्णि में बोटिकों के उपकरणों की चर्चा करते हुए 'धम्मकुच्चग' ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी मिलता है। यहाँ 'धम्मकुच्चग 'शब्द का अभिप्राय प्रतिलेखन या पिच्छि से ही है। उसके आगे लगा 'धम्म' शब्द यह सूचित करता है, वह धर्मोपकरण है। यापनोय ग्रन्थ मूलाचार में भी प्रतिलेखन (पिच्छि) को संयमोपकरण कहा गया है। इस प्रकार आचारांगणि में वर्णित 'धम्मकुच्चग' धार्मिक उपकरण अर्थात् पिच्छि विशेष ही है और उपयुक्त विकल्पों में अधिक सम्भव यही है कि इसी कारण यह वर्ग कर्चक कहलाया हो । यहाँ विशेषरूप से यह ज्ञातव्य है कि जैन श्रमणों में पिच्छि के स्वरूप एवं प्रकार के आधार पर गण या संघ का नामकरण होता रहा है। अचेलक परम्परा में ही गो-पिच्छक और निष्पिच्छक जैसे संघ रहे हैं। इसी प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य-यह नामकरण भी पिच्छि के प्रकार के आधार पर हुआ है। अतः सम्भव है कि जैन श्रमणों का एक वर्ग अपनी अहिंसक दृष्टि के कारण पशुओं के १. पाइयसद्दमहण्णवो पृ० २५०-२५१ । २. बोडिएण धम्मकुच्चगकडसागरादि सेच्छया गहिता । आचारांगचूणि पृ० ८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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