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________________ ५० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय दानपत्रों के इस शब्द ने पहले-पहल हमें मयूरपिच्छि रखनेवाले जैन साधुओं के ही किसी सम्प्रदाय को समझने के लिए ललचाया । यापनीय साधु मयूरपिच्छि रखते थे और दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु भी मयूरपिच्छि रखते हैं; परन्तु दानपत्रों का उक्त कूचक सम्प्रदाय इन दोनों से भिन्न कोई तीसरा ही प्रतीत होता है और कुछ प्राचीन उल्लेखों के मिल जाने से अब हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यह कूर्चक जैन साधुओं का ऐसा सम्प्रदाय होना चाहिए जो दाढ़ी मंछ रखता होगा। उन्होंने यह यह भी माना है कि वारांगचरित के कर्ता जटासिंह नन्दी का जो वर्णन उपलब्ध है वह सम्भवतः जैन साधुओं द्वारा "जटा" रखे जाने का आभास देता है । अपने कथन को पुष्टि में प्रेमी जी जिनसेन रचित आदिपुराण में उनकी जटाओं का “जटाः प्रचल वृत्तयः" के रूप में जो वर्णन किया गया है-उसका उल्लेख करते हैं। किन्तु आदरणीय प्रेमो जी के इस निष्कर्ष से सहमत होने में कुछ कठिनाई है। क्योंकि केशलोच जैन श्रमण संघ का एक अपरिहार्य नियम रहा है और उस परम्परा का भंग करके जैन श्रमण दाढ़ी और जटायें रखने लगे हों इसका जटानन्दी के उपर्य क्त उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। पुनः जटा के कारण 'जटी-जटिल' नामकरण होता है, कूर्चक नहीं। ओनियक्ति में गेरुए वस्त्रधारी दाढ़ी रखने वाले साधुओं का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु जैन साधु दाढ़ी रखते थे ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।' चूंकि श्वेताम्बरों में केश लोच का अन्तराल स्थविरों के लिए सामान्यतया १ वर्ष का और अन्य साधुओं के लिए ८, ६ अथवा ४ मास का होता था । उसके मध्य तो इस वर्ग के जैन साधुओं की दाढ़ी तो बढ़ ही जाती होगी। अतः यदि दाढ़ी के आधार पर ही कुछ जैन साधु कूर्चक कहे जाते हों तो सम्भव यही लगता है कि वे स्थविरकल्पी या श्वेताम्बर होंगे । दाढी आदि के कारण किसी दिगम्बर जैन संघ का नाम कूर्चक संघ पडा हो इसका हमारे पास कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर आगमों में जिनकल्पी (नग्नमुनि) के लिए नित्य लोच का १. जैन इतिहास और साहित्य (पं० नाथूराम प्रेमी), द्वितीय संस्करण पृ० ५५८-५६२ । २. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थानस्मानन्वदन्तीव जटाचार्यः . स नोऽवतात्-आदिपुराण ५० । ३. कासायवत्थकुच्चं धराय--ओपनियुक्ति भाष्य-८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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