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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ४९ अनुसार कूर्चक संघ के वारिसेनाचार्य के अन्वय में चन्द्रक्षान्त नामक मुनि को कदम्ब नरेश रविवर्मा ने अपने राज्य के चौथे वर्ष में अपने पितव्य शिवरथ के उपदेश से सिंह सेनापति के पुत्र मृगेशवर्मा द्वारा निर्मित जिनमंदिर में अष्टाह्निका पूजा के लिए और सर्वसंघ के भोजन के लिए वसुन्तवाटक नामक ग्राम दान में दिया था। इस अभिलेख में 'कूर्चकानां वारिसेनाचार्य संघ हस्ते चन्द्रक्षान्तं प्रमुखं कृत्वा' ऐसा उल्लेख होने से यह अनुमान होता है कि कुर्चक संघ के अन्तर्गत भी अनेक संघ (अन्वय) रहे होंगे । कूर्चकों के सन्दर्भ में ये दोनों ही अभिलेख 'हल्सी' से उपलब्ध हुए हैं। इसके अतिरिक्त कूर्चकों से सम्बन्धित अन्यत्र कही से कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं है । अतः यह निश्चित करने में अत्यन्त कठिनाई का अनुभव होता है कि इस सम्प्रदाय की मान्यताओं का अन्य संघों से क्या अन्तर था, यह कितने वर्षों तक जीवित रहा और उसका मुख्य प्रभावक्षेत्र कहाँ था ? ___ तापस परम्परा के साधुओं की चर्चा के प्रसंग में कूर्चकों का उल्लेख श्वेताम्बर आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य दोनों में ही उपलब्ध होते हैं। इन तापसों में शिखी, जटी आदि के साथ कूर्चकों का भी उल्लेख हुआ है और उनमें मुख्य रूप से निर्ग्रन्थ श्रमण और श्रमणियों को कूर्चक के साथ किसी भी प्रकार वस्त्रादि के लेन-देन का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए, इसकी चर्चा है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि हल्सी के दोनों अभिलेखों में उल्लिखित कूर्चक संघ तापस-परम्परा से सम्बन्धित न होकर जैन परम्परा से ही सम्बन्धित था। जैन परम्परा का यह कूर्चक सम्प्रदाय कौन था, इसकी क्या मान्यताएँ थीं, साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों स्रोतों से इस सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं होता।
आदरणीय नाथूराम जी प्रेमी ने यह अनुमान लगाया है कि जैन साधुओं का भी कोई एक वर्ग होगा जो दाढ़ी आदि रखता होगा और इसी कारण वह कूर्चक कहलाता होगा । वे लिखते हैं कि “कूर्चक (प्राकृत-कुच्चय) शब्द के अनेक अर्थ हैं, दर्भ, कुशकीमुट्ठो, मयूरपिच्छि
और दाढ़ी-मछ। कूँची इसका देशी रूप है। कर्नाटक में ऊंची-कमण्डलु साधुओं के उपकरणों के रूप में आमतौर से व्यवहृत होता है। इससे १. जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेख क्रमांक ९९ एवं १०२ । २. कावलिए य भिक्खू सुइवादी कुच्चिए अवेसत्थी वाणियग तरुण संसट्ठ मेहुणे __ मोहए चेव-बृहत्कल्पसूत्र-लघुभाष्य-२८२३
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