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________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४९७ कार करे और न किसी के द्वारा सम्मुख लाये हुए भोजन को ही स्वीकार करे। पुनः सुत्तनिपात (२५।२६) में ही पंचशीलों की चर्चा के साथ-साथ षष्ठशील के रूप में रात्रि-भोजन का निषेध करते हुए कहा गया है कि भिक्षु रात्रि में विकाल-भोजन न करे। इससे स्पष्ट है कि जिस प्रकार जैन-परम्परा में पाँच महाव्रतों के साथ छठे व्रत के रूप में रात्रि-भोजन का निषेध किया गया था उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में पंचशीलों के साथ षष्ठशील के रूप में रात्रि-भोजन का निषेध किया गया था। जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान ही वैदिक (ब्राह्मणीय) परम्परा में भी संन्यासी के लिए रात्रि-भोजन का निषेध है। महाभारत के शान्तिपर्व में मारकण्डेय ऋषि कहते हैं कि हे राजन् ! रात्रि में भोजन क्रिया का निषेध किया गया है । जो सूर्यास्त के पूर्व भोजन कर लेता है, उसे महान् पुण्य प्राप्त होता है। एक बार भोजन करने वाला अग्निहोत्री के बराबर पुण्य प्राप्त करता है और जो सूर्यास्त के पूर्व भोजन करता है वह तीर्थयात्रा के फल को प्राप्त करता है। यदि स्वजन की मृत्यु पर सूतक होता है तो फिर दिवानाथ सूर्य के अस्त हो जाने पर भोजन कैसे किया जा सकता है। सूर्यास्त के बाद जलपान-रुधिरपान के समान और अन्न को मांस के समान कहा गया है। स्कन्दपुराण' से भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि होती है। इस प्रकार जहाँ श्वेताम्बर और यापनीय इसे छठे व्रत के रूप में स्वीकार करते हैं, वहाँ अचेल परम्परा का काष्ठासंघ जो कि यापनीय परम्परा से ही विकसित हुआ है, उसे छठा अणुव्रत कहता है। हम पूर्व में इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि काष्ठासंघ की जो विशेषताएँ दर्शनसार में बताई गई हैं उनमें स्त्रियों की पुनर्दीक्षा, क्षुल्लकों की वीरचर्या तथा रात्रि-भोजन-निषेध को छठा अणुव्रत माना गया है । यह ध्यान रखना चाहिए कि काष्ठासंघ से सम्बन्धित जैन विद्वानों भी रात्रि-भोजन निषेध को छठे अणुव्रत के रूप में ही उद्धृत करते हैं। पं० आशाधर जी ने यह प्रश्न उठाया है कि इसे महाव्रत न कहकर अणुव्रत क्यों कहा गया है ? इसके उत्तर में वे कहते हैं कि केवल रात्रि में भोजन का त्याग होने से और दिन में ग्रहण किये जाने की अनुमति होने से काल की दृष्टि से इसका पालन आंशिक होता है, अतः इसे अणुव्रत कहा गया है" किन्तु हम स्पष्ट कर चुके हैं कि उसे अणुव्रत कहने १. स्कन्डपुराण-स्क०-७, अध्याय ११, श्लोक २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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