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४९८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
की यह परम्परा काष्ठासंघीय है, यापनीयों या श्वेताम्बरों की नहीं । वे इसे महाव्रत नहीं, मात्र व्रत ही कहते हैं ।
दिगम्बर परम्परा में प्राकृत भाषा में निबद्ध जो 'मुनि प्रतिक्रमणसूत्र' उपलब्ध है उसमें 'अहावरे छट्ट अणुवदे राई भोजनादो वेरमणं' कहकर इसे छठा अणुव्रत कहा गया है। मेरी दृष्टि में यह मुनि प्रतिक्रमण वस्तुतः यापनीय परम्परा से ही काष्ठासंघ के माध्यम से दिगम्बर परम्परा को प्राप्त हुआ है । यह स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द की परम्परा में प्रतिक्रमण आदि बाह्य क्रियाओं का कोई स्थान नहीं था, क्योंकि कुन्दकुन्द ने तो उसे विष घट कहा था । अतः प्रतिक्रमण की परम्परा यापनीय और उनसे विकसित अन्य अचेल परम्पराओं में रही है और उन सभी में रात्रि भोजन निषेध को छठे अणुव्रत के रूप में उल्लिखित किया गया है, raft दिगम्बर परम्परा उसे छठा व्रत या छठा अणुव्रत नहीं मानती है । न केवल यापनीय प्रतिक्रमण पाठों में, अपितु यापनीय प्रायश्चित्त ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख षष्ठव्रत के रूप में हुआ है । छेदपिंड और छेदशास्त्र दोनों में हो इसे षष्ठव्रत कहा गया है, यद्यपि षष्ठव्रत का यह उल्लेख उनकी पुष्पिका में है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर इसे महाव्रत सम षष्ठव्रत यापनीय षष्ठव्रत और काष्ठासंघीय षष्ठ अणुव्रत कहकर उसे स्वीकार करती है वहाँ दिगम्बर परम्परा, इसे स्वतन्त्र रूप से न तो व्रत मानती है और न अणुव्रत । यह हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि तत्वार्थ सूत्र की दिगम्बर टीकाओं में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि रात्रि भोजन त्याग मुनि का छठा अणुव्रत है, अतः इसकी गणना ( व्रतों में ) करनी चाहिए । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद राजवार्तिक में अकलंकदेव तथा श्लोकवार्तिक में विद्यानन्द ने इसे स्वतन्त्र व्रत न मानकर इसका अन्तर्भाव आलोकित पान - भोजन नामक प्रथम महाव्रत की भावना में ही किया है । इससे स्पष्ट फलित होता है कि कोई भी दिगम्बराचार्य इसे स्वतन्त्र महाव्रत मानने के पक्ष में नहीं है ।
डॉ० कुसुम पटोरिया ने अपने ग्रन्थ "यापनीय और उनका साहित्य' में रात्रि भोजन विरमण के सम्बन्ध में लिखा है कि- 'दुर्भिक्ष के समय उत्तर-भारत के श्रमण रात्रि में भोजन लेने लगे होंगे या रखने लगे होंगे जैसा कि बृहत्कथाकोश की भद्रबाहु कथा से संकेत मिलता है, तभी उसके परिहार के लिए रात्रि भोजनपरित्याग को छठें व्रत के रूप में परि
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