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________________ ४९६ : जैनधर्म का यायनीय सम्प्रदाय का दृष्टिकोण समान ही था। श्वेताम्बर परम्परा में यह प्रश्न भो उठाया गया था कि रात्रि-भोजन मूलगुण है अथवा उत्तरगुण है । दशवैकालिक नियुक्ति में रात्रि-भोजन विरमण को व्रतषटक में सम्मिलित किया गया है और यह माना गया कि रात्रि-भोजन विरमण मूलगुण नहीं है किन्तु मूलगुणों की रक्षा के लिए आवश्यक होने से उसका प्रतिपादन मूलगुणों के साथ ही किया गया है । आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में मध्यवर्ती तीर्थंकरों के श्रमणों के लिए रात्रि-भोजन विरमण उत्तरगुण होता है, जबकि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर श्रमणों के लिए वह मूलगुण होता है' । रात्रि-भोजन विरमण के साथ एक समय भोजन का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है । 'दगम्बर और यापनीय परम्परा के प्रश्नों में एक समय भोजन को मूलगुण माना है। श्वेताम्बर मान्य दशवैकालिक ( ६।२३) भी स्पष्ट रूप से तो एक समय भोजन का ही विधान करता है। परवर्ती श्वेताम्बर परम्परा में जो सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के पूर्व तक पूरे दिन भोजन ग्रहण करने की अनुज्ञा परिलक्षित होती है, वह भी अपवाद मार्ग के रूप में ही मान्य हुई थी, किन्तु आज वह सामान्य नियम बन गई है। __न केवल जैन परम्परा अपितु बौद्ध और वैदिक परम्परायें भी रात्रि भोजन का निषेध करती हैं तथा भिक्षु के दिन में भी एक ही समय भोजन का प्रतिपादन करती हैं। उनमें भिक्षु के लिए 'विकाल' भोजन अर्थात् मध्यकाल के पश्चात् भोजन करना निषिद्ध है। बौद्ध परम्परा में भिक्षुओं के लिए विकाल भोजन एवं रात्रि-भोजन को त्याज्य बताया गया है। मज्झिमनिकाय ( कीटागिरिसूत्त ७० ) में बुद्ध कहते हैं-हे भिक्षुओ! मैंने रात्रि-भोजन को छोड़ दिया है, उससे मेरे शरीर में व्याधि कम हो गई है, जाड य कम हो गया है, शरीर में बल आया है, चित्त को शान्ति मिली है । हे भिक्षुओं ! तुम भी ऐसा ही आचरण रखो । यदि तुम रात्रि में भोजन करना छोड़ दोगे तो तुम्हारे शरीर में व्याधि कम होगी, जाड्य कम होगा, शरीर में बल आयेगा और तुम्हारे चित्त को शान्ति मिलेगी। बौद्ध परम्परा में दिन के बारह बजे के पश्चात् से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व तक का समय 'विकाल' माना जाता है। उस समय के बीच भोजन करना बौद्ध भिक्षु के लिए वर्जित है। ___सुत्तनिपात में कहा गया है कि रात्रि के बीत जाने पर ही भिक्षु भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे। वह न तो किसी का निमन्त्रण स्वी१. दशवैकालिक, हारिभद्रीयवृत्ति, ४८ पृ० १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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