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________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४८५ की सूची में कुण्डिका का उल्लेख किया है। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में शौचोपधि के रूप में पात्र का उल्लेख हुआ है। इस सब से यही फलित होता है कि यापनीय भोजन तो हाथ में ही ग्रहण करते थे, किन्तु शौचादि हेतु जल रखने के लिए पात्र अवश्य रखते थे। यह परम्परा आज भी दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है। यहाँ यह विचारणीय है कि पात्र रखने की परम्परा का विकास महावीर के निग्रन्थ संघ में किस प्रकार हुआ। पाव की परम्परा में पात्र रखा जाता था या नहीं ? इस प्रश्न का समाधान उत्तराध्ययन की केशी-गौतम चर्चा में अनुपलब्ध है, यद्यपि पाश्वपित्यों के जो उल्लेख अन्यत्र उपलब्ध हैं उनसे ऐसा लगता है कि उनमें पात्र रखे जाने की परम्परा रही होगी। महावीर के सम्बन्ध में श्वेताम्बर साहित्य में जो उल्लेख उपलब्ध हैं-उनसे निम्न फलित निकलते हैं (१) प्रव्रज्या ग्रहण करते समय महावीर ने मात्र एक वस्त्र ग्रहण किया था, पात्र रजोहरण ( पिच्छी ) आदि अन्य उपकरण नहीं लिए थे। यदि लिये होते तो आचारांग में अवश्य उनका उल्लेख होता। (२) चणि साहित्य से यह भी स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ में महावीर गही-पात्र में भोजन कर लेते थे, किन्तु लगभग आठ मास पश्चात उन्होंने उसका भी त्याग कर दिया और वे पाणि-तल भोजी हो गये। चूणि में उल्लेखित इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि-महावीर ने दीक्षित होते समय पात्र नहीं रखा था, दूसरे यह कि पहले वे गृहो पात्र में भोजन करते थे और बाद में पाणितल भोजी हुए।' (३) महावीर के श्रमण प्रारम्भ में पात्र रखते थे या नहीं इसका निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है। आचारांग जैसे प्राचीन स्तर के ग्रन्थ में भी दोनों तरह के सन्दर्भ उपलब्ध हैं, आचारांग में यह भी कहा गया है कि वर्षा आ जाने पर भिक्षु अपने भोजन को कांख में दबाले या फिर हाथों से उसे सम्पुट कर ले । इससे फलित होता है कि वे पात्र नहीं रखते थे। किन्तु आगे इसी ग्रन्थ में पात्र रखने के भी उल्लेख हैं। मात्र यही नहीं, कैसा पात्र लेना और कैसा नहीं लेना, इसका भी उल्लेख है। श्वेताम्बर उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित तक मात्र एक ही पात्र १. पंच अभिग्गहा गहिता, तं जहा. पाणीसु भोत्तन्व ।""तेण पढम पारणगे परपत्ते भुत्ते तेन परं पाणिपत्तं ।-आवश्यकणि पृ० २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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