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________________ ४८६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय रखा जाता था। भोजन, जल तथा शौच के लिए उसी का उपयोग किया जाता था, उन्होंने सर्वप्रथम मात्रक के नाम से एक और पात्र रखने की अनुमति दी । मात्रक, जैसा कि आज समझा जाता हैमल-मूत्र विसर्जन का या शौच का पात्र था - यह प्रश्न विचारणीय है । यदि मह मल-मूत्र विसर्जन का पात्र था तो सर्व प्रथम अतिवृद्ध और रोगी भिक्षुओं के लिए इसका प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा । पात्र की आवश्यकता शौचोपधि के रूप में तो प्रारम्भ से ही रही होगी - क्योंकि सचित्त जल के प्रयोग का निषेध तो जैन संघ में प्रारम्भ से ही था, अतः जैन श्रमण नदी, जलाशय आदि के आसपास मल-निवृत्ति करके भी उससे शुद्धि कर नहीं सकते थे । यह भी कुछ अटपटा सा लगता है कि वे मल-मूत्र विसर्जन के अंगों की शुद्धि किये बिना रहते होंगे । सम्भव है कि मलविसर्जन के उपरान्त स्वमूत्र या सूखे पत्ते आदि से मल-शुद्धि कर लेते होंगे । कुछ समय पूर्वतक स्थानकवासी परम्परा में रात्रि में जल नहीं रखते थे— रात्रि में मल विसर्जन की स्थिति होने पर वे स्वमूत्र या जीर्णवस्त्र खण्ड से ही मल शुद्धि करते थे । पश्चिमी देशों में आज भी कागज से ही मल द्वार की शुद्धि की जाती है । वे लोग इस हेतु जल का उपयोग नहीं करते हैं । किन्तु भारत में प्राचीन काल से ही मल-द्वार की शुद्धि जल से करने की परम्परा रही है । 'मूलाचारप्रदीप नामक ग्रन्थ झरने आदि के जल को प्रासुक मानकर उससे मल शुद्धि करने का उल्लेख है'। अतः चाहे आहार के लिए पात्र न रखा जाता हो किन्तु शौच के लिए अवश्य रखा जाता होगा । फिर भी स्पष्ट साक्ष्यों के अभाव में पात्र के सम्बन्ध में निर्ग्रन्थ संघ की प्रारम्भिक स्थिति क्या थी यह कहना कठिन है । यद्यपि सभी श्वेताम्बर एवं यापनीय आगमों में पात्र, सम्बन्धी उल्लेख हैं, किन्तु यापनीय परम्परा में उसका उपयोग शौच के लिए ही किया जाता था, भिक्षा के लिए नहीं । यापनीय ग्रन्थों में उसे शौचोपधि ही कहा गया है । पात्र शौचोपधि के रूप में ग्राह्य था, किन्तु यापनीय आगम भगवती आराधना में ग्लान, अति वृद्ध या रोगी मुनियों को पात्र में आहार लाकर देने की प्रथा रही है । मथुरा में लगभग प्रथम शती का एक ऐसे मुनि का अंकन मिलता है जो नग्न है, किन्तु एक हाथ में प्रतिलेखन ( पिच्छी/ रजोहरण ) और दूसरे हाथ में झोली में पात्र लिए हुए हैं । यह प्रतिमा १. मूलाचार - प्रदीप पृ० १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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