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________________ ४८४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय टीका से यह स्पष्ट होता है कि वे मयूरपिच्छी रखते थे। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि भगवती आराधना के यापनीय टीकाकार अपराजित सूरि ( ८-९ वीं शती) 'पडिलेहण' का अर्थ सदैव ही प्रतिलेखन करते हैं।' ज्ञातव्य है कि अपराजित की सम्पूर्ण टीका में केवल एक-दो स्थानों पर ही पिच्छी शब्द का प्रयोग हुआ है। जबकि मूलाचार के दिगम्बर टीकाकार वसुनन्दी ( १२ वीं शती) पडिलेहण का अर्थ सदैव ही पिच्छी करते हैं। इस प्रकार हम देखते है कि सामान्यतया जैन परम्परा में और विशेष रूप से यापनीय परम्परा में भी प्रारम्भ में तो प्रतिलेखन, पिच्छी, रजोहरण के स्वरूप अर्थात् वह किस वस्तु का बना हुआ हो, उसका आकार-प्रकार क्या हो, इसे लेकर एकरूपता का अभाव ही रहा है-किन्तु कालक्रम में प्रत्येक सम्प्रदाय ने किन्हीं विशिष्ट आकार प्रकार की पिच्छी, रजोहरण रखना प्रारम्भ कर दिया। यापनीय परम्परा में ही मयूरपिच्छी का प्रचलन रहा हो इसमें वैमत्य का प्रश्न नहीं उठता है, क्योकि भगवती आराधना और मूलाचार में प्रतिलेखन, पिच्छी के जो गण बताये गये हैं, वे मयूरपिच्छ में पाये जाते है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राचीन श्वेताम्बर आगमों में भी रजोहरण के रूप में मयूरपिच्छ के ग्रहण का कोई विरोध नहीं है। निशीथचूणि ( गा० ८२२ ) में स्पष्टतः आपवादिक स्थिति में मयूरपिच्छी रखने का उल्लेख है। प्रारम्भ में श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित काष्ठदण्ड के रजोहरण निषिद्धर्थं छेदसूत्रों में रजोहरण में काष्ठ-दण्ड लगाने का न केवल स्पष्ट निषेध है अपितु जो उसका प्रयोग करता है, उसे दण्ड देने की भी व्यवस्था है। पात्र ( कमण्डलु) यापनीय परम्परा को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ने पाणितलभोजी कहा है । इसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। हम यह भी देख चुके हैं कि आचारांग चूणि में श्वेताम्बर आचार्यों ने उनके उपकरणों १. मूलाचार १०।१९, भगवती आराधना, गाथा ९८ २. भगवतो आराधना, विजयोदया टीका-गाथा ९८ ३. मूलाचार टीका (वसुनन्दि) १०।१९ ४. जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुछणं करेति करें तं वा सातिज्जति -निशीथ २।१-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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