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________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४८३ भगवतीआराधना एवं मूलाचार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनमें सामान्यतः न तो दिगम्बर सम्मत पिच्छी शब्द का उल्लेख है और न श्वेताम्बर सम्मत रजोहरण शब्द का उल्लेख है अपितु उसके स्थान पर उसमें प्रतिलेखन (पडिलेहण) शब्द का प्रयोग है । भगवती आराधना में टीकाकार अपराजित' भी मुख्यतः इसी शब्द का प्रयोग करते हैं । इससे ऐसा फलित होता है कि प्रारंभ में यापनीयों में यह आग्रह नहीं रहा होगा कि यह प्रतिलेखन किस वस्तु का बना हुआ हो । मथुरा में मुनियों की या साध्वियों की जो प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं उनमें विविध आकार एवं प्रकार के प्रतिलेखन / रजोहरण / पिच्छी हैं। मेरी दृष्टि में आगे चलकर रजोहरण या पिच्छी के आकार एवं प्रकार को लेकर विवाद उत्पन्न हुए होंगे और प्रत्येक संप्रदाय या उपसंप्रदाय ने विशिष्ट आकार-प्रकार के एवं विशिष्ट वस्तु के बने हुए प्रतिलेखन / रजोहरण / पिच्छी ग्रहण करने का नियम बनाया होगा । मथुरा के पश्चात् जो उत्कृष्ट जैन शिल्प खजुराहो में उपलब्ध होता है— उसमें अचेल मुनियों की प्रतिमाएँ भी हैं । उनके उपकरणों में लम्बे प्रतिलेखन अंकित हैं। यद्यपि वे मयूरपिच्छ के भी हो सकते है किन्तु आकार में वे वैसे ही हैं जैसे कि वर्तमान में श्वेताम्बर स्थानकवासी मुन रखते हैं। यह सब इस बात का सूचक है कि विशिष्ट प्रकार का रजोहरण या विशिष्ट आकार प्रकार की पिच्छी परवर्ती काल के आग्रह हैं । भगवती आराधना और मूलाचार में जो हमें पिच्छी या रजोहरण के स्थान पर पडिलेहण / प्रतिलेखन का उल्लेख मिलता है, वह उस वस्तु के कार्य का सूचक है - विशिष्ट वस्तु या विशिष्ट आकार का सूचक नहीं है । आश्चर्य यह है कि दोनों ग्रन्थों में (मूल में) कहीं भी मयूरपिच्छी का निर्देशन नहीं है । यद्यपि दोनों ही ग्रन्थों में प्रतिलेखन के पाँच गुण -- धूलि एवं पसीने से अलिप्त रहना, मृदुता, सुकुमारता और लघुता ( हल्कापन ) माने गए। यह भी कहा गया है कि जिसे नेत्र में घुमाने से पीड़ा न हो ऐसे सूक्ष्म एवं हल्के प्रतिलेखन ( पडिलेहण) ग्रहण करना चाहिए। इन दोनों ग्रन्थों के उपलब्ध उल्लेख से यह स्पष्ट है. कि यापनीय प्रतिलेखन रखते थे, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि वह किस वस्तु का था । मात्र तेरहवीं शती के गुणरत्नसूरि की षट्दर्शनसमुच्चय १. भगवती आराधना, गाथा ९७ की विजयोदया टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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