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४७८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
पुछन शब्द का ही उल्लेख मिलता है । उत्तराध्ययन' में 'पायकंबलं' ऐसा प्रयोग मिलता है। इसे अलग-अलग दो शब्द मानने पर पात्र और कंबल ऐसे दो उपकरण फलित होते हैं किन्तु उसे एक ही शब्द मानने पर इसका अर्थ भी पात्रप्रोञ्छन हो सकता है। टीकाकार ने यही अर्थं किया है क्योंकि प्राचीन उल्लेखों के अनुसार पात्रप्रोञ्छन एक हाथ लम्बा - चौड़ा कम्बल का टुकड़ा होता था । रजोहरण इब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत परवर्ती आगम आवश्यकसूत्र, दशवेकालिक, बृहत्कल्पसूत्र, निशीथ, स्थानांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृतदशा और प्रश्नव्याकरण में उपलब्ध है । गोच्छक शब्द का उल्लेख दशवेकालिक के अतिरिक्त उत्तराध्ययन, भगवती और कल्पसूत्र में भी हुआ है । यदि हम इन ग्रंथों के कालक्रम को ध्यान में रखकर इसकी चर्चा करें तो हमें यह मानना होगा कि आचारांग में रजोहरण या पिच्छी का उल्लेख नहीं है मात्र पायपुछन का उल्लेख है । प्रारम्भ में पात्रप्रोञ्छन के रूप में कम्बल के टुकड़े का प्रयोग हुआ होगा । बाद में सम्भवतः उसे गोलाकार लपेटकर तथा उसके अग्रभाग को खोलकर रजोहरण बनाया जाता था । फिर लपेटे गए हिस्से के ऊपर के भाग में मोटे घास के तिनकों को डालकर अगला भाग कठोर बनाया गया, यह रजोहरण या प्रतिलेखन कहलाया । बाद में भेड़ एवं ऊँट के ऊन आदि से रजोहरण बनने लगे, स्थानांग एवं बृहत्कल्प में पाँच प्रकार के रजोहरण का उल्लेख है — भेड़ के ऊन का, ऊँट के ऊन का, सन का विशेष प्रकार की घास का और मूंज का । इससे यह ज्ञात होता है कि इन पाँचों में से किसी का भी रजोहरण ग्रहण किया जाता था । किन्तु पूर्व की अपेक्षा उत्तरवर्ती का ग्रहण करना अपराध माना जाता था रजोहरण गुच्छक के रूप में होता था अतः उसे ही गोच्छक कहा गया । इस प्रकार पायपु छन, रजोहरण और गोच्छग शब्द प्रचलित हुए । मेरी दृष्टि में प्रारम्भ में ये तीनों ही पर्यायवाची थे । जहाँ तक पिच्छी का प्रश्न है सचेल और अचेल परम्परा के प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी पिच्छी का उल्लेख नहीं मिलता । उसका प्रथम उल्लेख छठी - सातवीं शती के बाद के ग्रंथों में ही मिलता है । यद्यपि यापनीय परम्परा
,
१. उत्तराध्ययन- १७/९
२. दशवैकालिक - ४१२३, उत्तराध्ययन- २०१२३, भगवइ - ८।२५०
कल्प० ३।१४,१५
३. बृहत्कल्पसूत्र - २/३०
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