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________________ निग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४७७ रूप से निशीथभाष्य आदि में रजोहरण और पायपुछन ( पादप्रोञ्छन) का पर्यायवाची ही माना गया है । वैसे कुछ आचार्यों ने इन शब्दों के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के आधार पर पादप्रोञ्छन, पात्रप्रोञ्छन और रजोहरण इन तीनों को अलग-अलग उपकरण माना है। उनके अनुसार पादप्रोञ्छनपाँव पोंछने के लिए, पात्रप्रोञ्छन-पात्रों की सफाई के लिए और रजोहरण-धूल और जीव-जन्तुओं के प्रमार्जन के लिए उपयोग में लाया जाता है । यद्यपि वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा में ये तीनों अलग-अलग रखे जाते हैं किन्तु प्राचीन काल में ये तीन स्वतन्त्र उपकरण रहे होंगे, यह मानना कठिन है अन्यथा आगमिक व्याख्याकार इन्हें पर्यायवाची नहीं मानते । मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने निशीथसूत्र के दूसरे उद्देशक के प्रारंभ में दशवकालिक अध्ययन-४ तथा प्रश्नव्याकरणसूत्र अध्याय-५ के आधार पर इन्हें अलग-अलग उपकरण कहा है। किन्तु दशवैकालिक में जहाँ रजोहरण, पायपुछन और गोच्छग शब्द का प्रयोग हुआ है उस स्थल को देखने से ऐसा लगता है कि ये पर्यायवाची भी रहे होंगे क्योंकि वहाँ पीढक, फलक, शय्या और संथारग ये चार शब्द मुख्यतया पर्यायवाची रूप में ही प्रयुक्त हैं। ये चारों विकल्पात्मक हैं। अतः दशवैकालिक के आधार पर इन तीन को अलग-अलग उपकरण मानना उचित नहीं लगता। वर्तमान में भी ये तीनों आकार-प्रकार आदि को छोड़कर स्वरूप की दृष्टि से एक समान ही हैं । वस्तुतः जैसे-जैसे साफ-सफाई का विवेक अधिक होता गया वैसे-वैसे इन्हें अलग-अलग कर दिया गया। सम्भवतः जिससे धूल साफ की जाती हो उससे पाँव साफ करना और जिससे पांव साफ किया जाता हो उससे पात्र साफ करना उचित प्रतीत नहीं हुआ होगा इसलिए ये तीन अलग-अलग उपकरण बना लिए गये । मल में तो ये एक ही थे और इनका प्रयोजन स्थान, पात्र, उपकरण अथवा शरीर आदि को रज आदि से रहित करना था। यहाँ ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य प्राचीन आगम आचारांग, आचारांगचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवतो, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा आदि में मुख्यतः पाय (ब) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाइं पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहारित्तए वा, तं जहा-१-ओण्णिए, २-उट्ठिए, ३-साणए ४-वच्चाचिप्पए ५-मुजचिप्पए नामे पंचमे । बृहत्कल्पसूत्र-२॥३० १. निशीथसूत्रम्, संपा. मधुकरमुनि, ब्यावर १९९१, अनु० कन्हैयालाल 'कमल'-पृ. ३२-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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