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________________ ४७६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय पस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया क्योंकि जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प का उल्लेख प्रायः श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा में ही देखने को मिला है। दिगम्बर परम्परा में यापनीय प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्रायः इस चर्चा का अभाव ही है । वस्तुतः यापनीय परम्परा ने जिनकल्प के पुनः प्रवर्तन का ही प्रयास किया था। जहाँ तक उसके उपकरणों का प्रश्न है, आदर्श स्थिति में श्वेताम्बर परम्परा उसके लिए दो उपकरण निश्चित करती है-एक रजोहरण और दूसरा मुखवस्त्रिका । यापनीय परम्परा में उत्सर्ग मार्ग में उसके लिए पिच्छी/प्रतिलेखन और कमण्डलु का उल्लेख मिलता है। आगे हम इन दोनों के सम्बन्ध में थोड़ी विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रतिलेखन/पिच्छी . जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में रजोहरण अथवा प्रतिलेखन मुनि का एक आवश्यक उपकरण माना गया है। यहाँ तक कि जिनकल्प में या अचेल मुनि के लिए भी इसका रखना आवश्यक है। प्रतिलेखन रखने का मुख्य उद्देश्य सूक्ष्म जीवों को हिंसा से बचना है । यद्यपि इसे मुनि लिंग भी कहा गया है । प्राचीन ग्रंथों में इसके अनेक पर्यायवाची नाम प्रचलित हैं । दशवैकालिकसूत्र' में इसके रजोहरण, पायपुछन और गोच्छग ऐसे तीन नाम मिलते हैं। यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में इसके लिए मात्र प्रतिलेखन (पडिलेहण ) नाम मिलता है। परवर्ती दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में प्रतिलेखन के स्थान पर पिच्छी शब्द का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में उत्तराध्ययन, दशवकालिक, स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीथ आदि में इसके स्वरूप कार्य आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है।या व्ख्या ग्रन्थों-विशेष १. दशवैकालिक-४।२३ २. मूलाचार-१०।१९ ३. भगवती आराधना-९८ ४. (अ) नोतिसार-४३ . (ब) ठाणाणि सिज्जागमणे जीवाणं हंति अप्पणो देहं। .. दसकत्त रिठाण गदं णिविच्छे पत्थि णिव्वाणं ॥ -भद्रबाहु क्रियासार २५ ५. (अ) उत्तरा० २६।२३, दशवैकालिक-४ सूत्र-२३, ५।६८-७८ स्थानांग-५-१९१, कल्पसूत्र-२२२९, ३।१४,१५, निशीथ-४।२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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