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निर्ग्रन्थ संघ में उपकरणों की विकास यात्रा : ४७९
में प्रतिलेखन के रूप में मयूरपिच्छी का प्रयोग होता रहा है किन्तु आश्चर्य है कि यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना के मूल में कहीं भी पिच्छी शब्द का उल्लेख न होकर सर्वत्र प्रतिलेखन का ही उल्लेख मिलता है ।
मूलाचार और भगवती आराधना में संयमोपकरण के प्रसंग में मुनि के लिए प्रतिलेखन रखने का स्पष्ट विधान किया गया' । पायेंपु छन पात्रप्रोञ्छन
मूलाचार तो स्पष्ट रूप से संयमोपकरण के रूप में प्रतिलेखन का उल्लेख करता हैं । बोटिकों अथवा यापनीयों ने प्रारम्भ में प्रतिलेखन ( पिच्छी ) का ग्रहण किया था या नहीं इस सम्बन्ध में पंडित दलसुख भाई ने अपने लेख " क्या बीटिक दिगम्बर हैं" में शंका उपस्थित की है । उनका कथन है कि यदि पिच्छी का ग्रहण किया होता तो आचार्य जिनभद्र, विशेषावश्यकभाष्य में अपनी चर्चा में उसे भी परिग्रह क्यों न माना जाय - यह प्रश्न अवश्य ही उठाते । ऐसा नहीं करके उन्होंने यदि वस्त्र परिग्रह है, तो शरीर को भी परिग्रह क्यों नहीं मानते इत्यादि जो दलीलें दी हैं उन्हें वे पिच्छी की चर्चा के बाद ही देते । किन्तु इस चर्चा के आधार पर पिच्छी या प्रतिलेखन का प्रयोग प्रारम्भ में बोटिकों ने नहीं किया था, ऐसा स्पष्ट निर्णय नहीं किया जा सकता। पं० दलसुख भाई की शंका के सम्बन्ध में एक उत्तर यह हो सकता है कि सम्भव है प्रतिलेखन के ( पिच्छी) उभय सम्मत होने से उस सम्बन्ध में कोई भी चर्चा नहीं उठाई गई हो । यद्यपि दिगम्बर परम्परा में जैनाभासों के जिन पाँच वर्गों की चर्चा है, उनमें निष्पिच्छिकों के एक वर्ग का भी उल्लेख मिलता है, जिसे माथुर संघ भी कहा जाता था । किन्तु समस्या यह है कि उस श्लोक में इन्हें यापनीयों से भिन्न एवं परवर्ती बताया गया है । यह सम्भव है कि अपरिग्रह के अत्यधिक आग्रह के कारण यापनीयों की एक शाखा जो आगे
१. ( अ ) भगवती आराधना - ९८
(ब) मूलाचार - १०/१९
२. जैन विद्या के आयाम खण्ड - २, पं० बेचरदासदोशी स्मृतिग्रन्थ, पारवनाथ विद्याश्रम, वाराणसी - हिन्दी विभाग, पृ० ७२
३. गोपुच्छिकाः श्वेतवासाः द्राविडो यापनीयकाः ।
निः पिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभाषाः प्रकीर्तिता ॥
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नीतिसार, १०
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