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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४६३ और पात्र के लिए धर्मकथा न कहे । निशीथ' में कहा गया है कि जो भिक्षु अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु (प्रायश्चित का एक प्रकार ) प्रायश्चित आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र ग्रहण की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है ? इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते है कि आगम में कारण की अपेक्षा से आयिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि भिक्षु लज्जालु है अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष लम्बे हों अथवा वह परीषह (शीत ) सहन करने में अक्षम हो तो उसे वस्त्र धारण करने की अनुज्ञा है। आचारांग3 में ही कहा गया है कि संयमाभिमुख स्त्रीपुरुष दो प्रकार के होते हैं-सर्व श्रमणागत और नो-सर्वश्रमणागत । उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि पात्र भिक्षु को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना नहीं कल्पता है। बृहद्कल्पसूत्र में भी कहा गया है कि लज्जा के कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के जुंगित (बीभत्स ) होने पर अथवा परीषह (शीत(ब) णो पाणस्स ( पायस्स ) हेउ धम्ममाइक्खेज्जा । णो वत्थस्स हेउ धम्म माइक्खेज्जा । सूयगडो, २/१/६८, पृ० ३६६ १. (अ) कसिणाई वत्थकंबलाइं जो भिक्ख पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहगं । निशीथसूत्र, २/२३, उद्धृत भगवतोआराधना ( विजयोदयाटीका) गाथा ४२३, पृ० ३२४ (ब) जे भिक्ख कसिणाई वत्थाई धरेंतं वा सातिज्जति । निशीथसूत्र, २/२३, उद्धृत भगवतीआराधना ( विजयोदयाटीका) गाथा ४२३, पृ० ३२४ २. भगवतीआराधना ( विजयोदयाटीका ) गाथा ४२३, पृ० ३२४ ३. भगवतीआराधना में उल्लिखित प्रस्तुत सन्दर्भ वर्तमान आचारांग में अनुप लब्ध है। उसमें मात्र स्थिरांग मुनि के लिए एक वस्त्र और एक पात्र से अधिक रखने की अनुज्ञा नहीं है । सम्भवतः यह परिवर्तन परवर्तीकाल में हुआ है। ४. (अ) हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुंछंति देहे जुग्गिदगे। धारेज्जसिया वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासिति ॥ चोक्तं कल्पे, उद्धृत भगवतीआराधना ( विजयोदयाटीका) गाथा ४२३, पृ० ३२४ (ब) प्रस्तुत सन्दर्भ उपलब्ध बृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता है । यद्यपि वस्त्र धारण करने के इन कारणों का उल्लेख स्थानांगसूत्र ३ में निम्नरूप में मिलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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