________________
४६२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
चटाई आदि की याचना करें। पुनः उसके वस्त्रषणा' अध्ययन में कहा गया है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे दूसरा प्रतिलेखना हेतु रखे । जंगित (देश-विशेष ) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि ( शीत ) परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र धारण करे और चौथा प्रतिलेखना हेतु रखे । पुनः उसके पात्र षणारे में कहा गया है कि लज्जाशील, जंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि का हीनाधिक हो तथा पात्रादि रखने वाले के लिए वस्त्र रखना कल्पता है । पुनः उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का पात्र जीव एवं बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते ? पुनः आचारांग के भावना नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान एक वर्ष तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांग के पुण्डरोक नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु वस्त्र
१. (अ) एसेहिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं तत्थ एसे जुग्नि
देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । आचारांग, वस्त्रषणा, उद्धृत भगवतोआराधना (विजयोदयाटीका ), गाथा ४२३, पृ० ३२४ (ब) जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके विरसंघयणे, से एगं वत्थं
धारेज्जा, णो बितियं । आचारचूला, द्वितीयसूत्रस्कन्ध, २/५/१/२, पृ० १६१ २. (अ) हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं
पादचारित्तए इति ॥ आचारांग, वस्त्रषणा, उद्धृत भगवतीआराधना (विजयोदयाटीका ), गाथा ४२३, पृ० ३२४ (ब) जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायके
थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, णो बीय।
आचारचूला, अचारांगसूत्र, २/६/१/२ ३. संवच्छरं साहियं मासं, जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं । __ अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।। आचारांग, १/९/१/४ ४. (अ) ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति ।
सूत्रकृतांग-पुंडरीकअध्ययन, उद्धृत भगवतीआराधना (विजयोदयाटीका) गाथा ४२३, पृ० ३२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org