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________________ ४६४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय परीषह) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण करे । पुनः आचारांग' में यह भी कहा गया है यदि ऐसा जाने की शीतऋतु (हेमन्त ) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार ( आगमों में ) कारण की अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है । जो उपकरण कारण की अपेक्षा से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गहीत उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र की जो चर्चा बतायी गयी है वह कारण को अपेक्षा से अर्थात् आपवादिक है। __ इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय संघ मात्र आपवादिक स्थिति में वस्त्रग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग मार्ग अचेलता को ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के द्वारा एक वर्ष तक वस्त्र युक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता था । अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया है-जैसे कुछ कहते हैं कि वह छः मास में कांटे, शाखा आदि से भिन्न हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते हैं कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान ने उसकी उपेक्षा कर दी। कोई कहते हैं कि बिलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख दिया आदि । इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पुनः अपराजित ने आगम से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये हैं। यथा-"वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता तथा अचेल होकर जिन रूप धारण करता है । भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अतः मैं सचेलक हो जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का विचार न करे । मुझ निरावरण के कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तओ पायाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा-जंगिए-भंगिए, खोमिए । ठाणांग, ३/३४५ १. आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/७/४, सूत्र, २०९ पृ० २५१ २. (अ) भगवतीआराधना, विजयोदयटीका, पृ० ३२५-३२६ तुलनीय-आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० २७६ ।। (ब) श्रीमदावश्यकसूत्रं ( उत्तरभागं) चूासमेत, श्री ऋषभदेवजी, केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९ ३. भगवतीआराधना (विजयोदयाटीका) पृ० ३२६-२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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