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४४२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय शरीरादि ढकने के लिए नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया । आचारांग से इन सभी तथ्यों को पुष्टि होती है। उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल हो रहे, इस तथ्य को स्वोकार करने में श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह भी स्वीकार करती हैं कि महावीर अचेल धर्म के हो प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का सचेल दीक्षित हाना भी स्वेच्छिक नहीं था-वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, अपितु उनके कंधे पर डाल दिया गया था। यापनीय आचार्य अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है-वे कहते हैं कि यह तो उपसर्ग हुआ सिद्धान्त नहीं । आचारांग में उनके वस्त्र ग्रहण को "अनुधर्म" कहा गया है-अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन मात्र था, हो सकता है कि उन्होंने मात्र अपनो कुल परम्परा अर्थात् पावपित्य परम्परा का अनुसरण किया हो । श्वेताम्बर आचार्य उसकी व्याख्या में इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदुष्य वस्त्र ग्रहण करने की बात कहते हैं । यह मात्र परम्परागत विश्वास है, उस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपधानश्रुत मात्र वस्त्र ग्रहण की बात कहता है। वह वस्त्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदुष्य था, ऐसा उल्लेख नहीं करता। मेरो दृष्टि में इस "अनुधर्म" में "अनु' शब्द का अर्थ वही है जो अणुव्रत में "अनु" शब्द का है अर्थात् आंशिक त्याग । वस्तुतः महावीर का लक्ष्य तो पूर्ण अचेलता था, किन्तु प्रारम्भ में उहोने वस्त्र का आंशिक त्याग हो किया था । जब एक वर्ष की साधना से उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वे अपनी काम-वासना पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं और दो शीतकालों के व्यतीत हो जाने से यह अनुभव हो गया कि उनका शरीर उस शीत को सहने में पूर्ण समर्थ है, तो उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया। ज्ञातव्य है कि महावीर ने दीक्षित होते समय मात्र सामायिक चारित्र हो लिया था-महाव्रतों का ग्रहण नहीं किया था। श्वेताम्बर आगमों का कथन है कि सभी तीर्थंकर एक देवदुष्य लेकर सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा से ही दोक्षित होते हैं ।२ यह इसी तथ्य को पुष्ट १. आचारांग शीलांकवृत्ति, ११९.१।१-४, पृ० २७३ ! २. (अ) सव्वेवि एगदूसेण, निग्गया जिणवरा च उव्वीसं ।
न य नाम अण्ण लिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा मावश्यकनियुक्ति, २२७
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