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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न : ४४१ इतना ही बता देना पर्याप्त समझते हैं कि प्रारम्भ में महावीर ने वस्त्र लिया था और बाद में वस्त्र का परित्याग कर दिया। वह वस्त्र त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि हम महावीर के समकालीन अन्य श्रमण परम्पराओं की वस्त्रग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण परम्पराएँ प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएँ उपलब्ध हैं, उन सबमें एक मत से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन का २३वाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर ने अपने वंशानुगत पापित्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण करके अपनी साधना यात्रा प्रारम्भ की हो । कल्पसूत्र में उनके दीक्षित होते समय आभूषण त्याग का उल्लेख है वस्त्र त्याग का उल्लेख नहीं है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर-बिहार के वैशाली जनपद में शीत-ऋतु के प्रथम मास (मार्गशीर्ष) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति-आग्रह के कारण सम्भवतः महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया। यही कारण रहा कि माता-पिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। पुनः बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है विदाई की उस वेला में परिजनों के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो। किन्तु उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग भगवता य तेरसमासे अहाभावेणं धारियं ततो वोसरियं पच्छा अचेलते । तं एतेण पितुवंतस धिज्जातितेण गहितं । आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० २७६ । ___ इससे यह फलित होता है कि उनके वस्त्रत्याग के सम्बन्ध में जो विभिन्न प्रवाद प्रचलित थे-उनका उल्लेख न केवल यापनीय अपितु श्वेताम्बर आचार्य भी कर रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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