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४४० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
यह ज्ञात होता है कि वे एक वस्त्र लेकर दीक्षित हुए थे और लगभग एक वर्ष के कुछ अधिक समय के पश्चात् उन्होंने उस वस्त्र का परित्याग कर दिया और पूर्णतः अचेल हो गये ।" महावीर के जीवन की यह घटना ही वस्त्र के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जैन परम्परा के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है । इसका तात्पर्य इतना ही है कि महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ सचेलता से किया, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने पूर्ण अचेलता को ही अपना आदर्श माना । परवर्ती आगम ग्रन्थों में एवं उनकी व्याख्याओं में महावीर के एक वर्ष पश्चात् वस्त्र त्याग करने के सन्दर्भ में अनेक प्रवाद या मान्यतायें प्रचलित हैं । यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना और श्वेताम्बर आगमिक व्याख्याओं में इन प्रवादों या मान्यताओं का उल्लेख है । यहाँ हम उन प्रवादों में न जाकर केवल
१. णो चेविमेण वत्थेण तंसि हेमंते ।
से पारए आवकहाए एयं खु अणुधम्मियं तस्स ।
संवच्छरं साहियं मासं जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं ।
अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे ॥
आयारो, १।९।१।२ एवं ३
२.
( अ ) यच्च भावनायामुक्तं -- वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणोत्तितदुक्तं विप्रतिपत्ति बहुलत्वात् केचिद्वदन्ति तस्मिन्नेव दिने तद्वस्त्र वीर जिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति । अन्ये षण्मासाच्छिन्नं तत्कण्टक शाखादिभिरिति । साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्र ं खण्डलक ब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिद् वातेन पतितमुपेक्षितं जिनेनेति । अपरे वदन्ति विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति ।
भगवती आराधना, सं० पं० कैलाशचन्द्रजी, भाग १, पृ० ३२५ - ३२६ । (ब) तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहृत कण्टकाव लग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति । आचारांग शीलांकवृत्ति, ११९/११४४-४५ की वृत्ति ।
( स ) तहावि सुवण्णबालुगानदीपूरे अवहिते कंटरालग्गं । किमिति वुच्चति चिरधरियत्ता सहसा व लज्जता थंडिले चुतं ण वित्ति विप्पेण केणति दिट्ठ
आचारांगचूर्ण, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, पृ० ३०० । (द) सामी दविखण वाचालाओ उत्तरवाचालं वच्चति, तत्थ सुव्वण्णकुलाए वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं ताहे तं थितं सामी गतो पुणो य अवलोइतं, कि निमित्तं ? केती भांति - जहा ममत्तीए अन्ने भगति मा अत्थंडिले पडितं, अवलोइतं सुलभ वत्थं पत्तं सिस्साणं भविस्सति ? तं च
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