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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४२१ खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई जिसका प्रारम्भिक रूप पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलता है। ज्ञातव्य है पूज्यपाद एक ओर सयोगी केवली को आहारक मानते हैं (१८) तो दूसरी ओर उसमें क्षुधा का अभाव कहते हैं । ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थ के टीकाकारों में पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्ध की अपेक्षा अकलंक के राजवातिक और उनकी अपेक्षा भी विद्यानन्दी के श्लोकवार्तिक में केवली के कवलाहार के निषेधक तर्क क्रमशः विकसित होते हुए प्रतीत होते हैं। यह भी स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र, उसके स्वोपज्ञ भाष्य, यहाँ तक कि षटखण्डागम के रचना काल तक भी इस समस्या का अस्तित्व ही नहीं था। (५) दिगम्बर परम्परा का पूर्वपक्ष : दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम केवली के आहारनिहार का स्पष्ट निषेध उसमें अतिशय दिखाने के प्रसंग में ही किया परन्तु उसकी पुष्टि में कोई भी तर्क प्रस्तुत नहीं किया । सर्वप्रथम केवली के कवलाहार-निषेध के तर्क कषाय-पाहुड़ की जयधवलाटीका में प्राप्त होते हैं। उसमें कहा गया है कि यदि यह कहा जाय कि केवली तृष्णा के वशीभूत होकर भोजन करते हैं तो यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वे मोही होंगे। पुनः यदि यह कहा जाय कि केवली रत्नत्रय की साधना के लिये भोजन करते हैं तो यह कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि केवली को रत्नत्रय अर्थात् ज्ञान, संयम एवं ध्यान की साधना के लिये भोजन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि इन तीनों में कुछ भी उनके लिये प्राप्तव्य रह ही नहीं गया। केवली ज्ञान प्राप्ति के लिये भोजन करते हों यह मानना उचित नहीं, क्योंकि उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और उससे बड़ा कोई ज्ञान है ही नहीं, जिसकी प्राप्ति के लिये वे भोजन करें। संयम के लिये वे भोजन करते हैं, ऐसा कथन भी उचित नहीं, क्योंकि उन्हें यथाख्यात संयम की प्राप्ति हो चुकी है । वे ध्यान के लिये भी भोजन करते हों, यह भी आवश्यक नहीं, क्योंकि उन्होंने सब कुछ जान लिया है, अतः उनके ध्यान करने योग्य कोई पदार्थ ही नहीं रहा।' यदि यह कहा जाय कि केवली सांसारिक जीवों के समान १. घाइकम्मे णळे संते वि जइ वेयणीयं दुक्खमुप्पायइ तो सतिसो सभुक्खो केवली होज्ज? ण च एवं; भुक्खातिसासु कर-जलविसयतण्हासु संतीसु केवलिस्स समोहदावत्तीदो । तण्हाए ण भुंजइ, किंतु तिरयणट्ठमिदि ण वोत्तुं; जुत्तं; तत्थ वत्तासेससरुवम्मि तदसंभवादो । तं जहा, ण ताव णाणळं भंज; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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