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________________ ४२० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय की परम्परा ने षट्खण्डागम को अपना लिया और उस पर धवला-टीका लिखी गयी। (४) केवली कवलाहार का निषेध क्यों ? __ सत्य तो यह है कि जब केवली | तीर्थंकर अलौकिक व्यक्ति मान लिया गया तो सामान्य व्यक्ति से उसका वैशिष्ट्य दिखाने के लिए यह माना गया कि उसके आहार-निहार अदृश्य होते हैं, नख, केश आदि में वृद्धि नहीं होती आदि। इस क्रम में केवली के अतिशयों की चर्चा के प्रसंग में कुन्दकुन्द ने यह मान लिया लिया कि उसके आहार-निहार होते ही नहीं । जहाँ श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा केवली के शरीर को सामान्य मानवों के समान ही औदारिक ( हाड़-मांस से युक्त) मान कर उसमें आहार ग्रहण की सम्भावना मान रही थी, वहाँ दिगम्बर परम्परा में उसके शरीर को परम औदारिक मानकर उसमें आहारनिहार की आवश्यकता को ही समाप्त कर दिया गया । यापनीय आचार्य जो आगमों को मान्य कर रहे थे और जिन्होंने अपनी परम्परा में षट्खण्डागम का निर्माण किया था, वे आगमिक उल्लेखों के होते हुए, केवली के कवलाहार का निषेध नहीं कर सके, किन्तु दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर परम्परा ने जब आगमों को ही अस्वीकार कर दिया तो उनके लिए स्त्री-मुक्ति के साथ-साथ केवली के कवलाहार का भी निषेध करने में कोई बाधा नहीं रही। इस प्रकार केवली के कवलाहार का निषेध मूलतः तो उसे अतिशय युक्त (अलौकिक ) दिखाने का ही परिणाम था। इसके अतिरिक्त कुछ ताकिक कारण भी थे। जैसे जब एक बार यह मान लिया गया कि केवली में कोई आकांक्षा, इच्छा आदि नहीं रहती है तो फिर उसमें आहार की इच्छा भी कैसे मानी जा सकती थी? पुनः जब केवली में भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा का निषेध मान लिया गया, तो फिर उसमें आहार संज्ञा को भी क्यों माना जाय ? ज्ञातव्य है कि स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी-विवाद के समान हो कवलाहार सम्न्बधी विवाद से भी श्वेताम्बर आचार्य प्रायः ८वीं शती के प्रारम्भ तक अपरिचित ही रहे हैं, क्योंकि उस काल तक के किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में इस विवाद की कोई चर्चा नहीं है। केवलीभुक्ति के उल्लेख आगमों में हैं, वहाँ वह विवादित प्रश्न नहीं है। उसका निषेध तो सर्वप्रथम कुंदकुंद ने ( लगभग छठी शती) किया है। उसके बाद ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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