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४२२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय बल, आयु, स्वाद, शरीर की वृद्धि, तेज या सुख के लिये भोजन करते हूँ, तो ऐसा मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि यह मानने पर वे मोहयुक्त हो जायेंगे। मोहयुक्त होने पर उनमें केवलज्ञान का अभाव होगा, ऐसी स्थिति में उनके वचन आगम नहीं रह जायेंगे और आगम का अभाव होने से रत्नत्रय की प्रवृत्ति नहीं होगी और तीर्थ का विच्छेद हो जायेगा।'
इस प्रकार कवलाहार के निषेध का मुख्य प्रयोजन यही था कि केवली को ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है जिसके लिये वे भोजन करें। ज्ञातव्य है कि जयधवलाटीका में जो तर्क दिये गये हैं वे तर्क तत्त्वार्थ की टीकाओं में दिये गये तर्कों से भिन्न हैं। वस्तुतः तत्त्वार्थ की टीकाओं के तर्कों का मुख्य प्रयोजन केवली में ग्यारह-परीषहों के सद्भाव सम्बन्धी मूल पाठ में जो सूत्र था, उसका ही निषेध करना था, न कि केवली के कवलाहार का निषेध दिखाना।
उमास्वाति ने तो 'एकादशजिने' कहकर स्पष्ट रूप से केवली में क्षुधादि परीषहों का सद्भाव मान लिया था। क्षुधा-परीषह मानने का फलितार्थ यह भी था कि केवली क्षुधा के निवारणार्थ भोजन ग्रहण भी करते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा ( ३/९३ ) में वीतराग में दैहिक दुःखों को सम्भावना स्वीकार की है। दूसरे शब्दों में वे केवली में क्षुधावेदनीय का उदय मानते हैं। किन्तु उनके पश्चात् पूज्यपाद से लेकर तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार तक सभी दिगम्बर आचार्यों ने न तो केवली में
पत्तकेवलणाणभावादो। ण च केवल णाणादो अहियमण्णं पत्थणिज्जं णाणमत्थि जेण तदळें केवली जेज्ज । ण संजमठ्ठ; पत्तजहाक्खादसंजमादो। ण ज्झाण;; विसईकयासेस तिहुवणस्स ज्झेयाभावादो। ण भुंजइ केवली भुक्तिकारणाभावादो त्ति सिद्ध । अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सादु-सरीरुवचय-तेज-सुहढें चेव भुंजइ संसारिजीवो त्व; ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो। ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंकंकिए हरि-हर हिरण्णगन्भेसु व सच्चाभावादो । आगमाभावे ण तिरयणपडत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो चेव होज्ज, ण च एवं तित्थस्स णिब्बाहबोहविसयीकयस्स उवलंभादो। तदो ण वेयणीयं घाइकम्मणिखेक्खं फलं देदि त्ति सिद्धं ।।
जयधवलासहितं कसायपाहुडं, भाग १, प्रका० भा० दि० जैनसंघ, चौरासी, मथुरा, ई० स० १९४४,१/१/५२-५३, पृ० ६९-७१
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