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________________ ४१० : जैवधर्म का यापनीय सम्प्रदाय की कामवासना पाई जातो तो यह मानना होगा कि उस व्यक्ति में पुरुष और स्त्री अर्थात् दोनों प्रकार की कामवासना है। परन्तु आगम की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति नपुंसक लिंगी कहा गया है। जैन परम्परा में नपुंसक शब्द का तात्पर्य पुरुषत्व से होन अर्थात् स्त्री का भोग करने में असमर्थ व्यक्तिऐसा नहीं है । जैन परम्परा के अनुसार नपुंसक वह है, जिसमें उभय लिंग की कामवासनाएँ उपस्थित हों। पुनः शाकटायन का यह भी कहना है कि यदि किसी पुरुष का काम-व्यवहार दूसरे पुरुष के साथ स्त्रीवत् हो अथवा किसो स्त्री का काम-व्यवहार दूसरो स्त्री के साथ पुरुषवत् हो तो यह उसकी अपनी विकृत कामवासना का ही रूप है। कभी-कभो तो. मनुष्य पशुओं से भी अपनी कामवासना को पूर्ति करते हुए देखे जाते हैं । क्या ऐसो स्थिति में यह मानंगे कि उसमें पशु सम्बन्धी कामवासना है ? वस्तुतः यह उसकी अपनी कामवासना का ही एक विकृत रूप है। पुनः यदि यह कहा जाय कि आगम में विगत वेद या भव की अपेक्षा से स्त्री में १४ गुणस्थान माने गये हैं तो फिर तो विगत भव की अपेक्षा से देव में भी १४ गुणस्थान संभव होंगे। किंतु आगम में उनमें तो १४ गुण-- स्थान नहीं कहे गये हैं । वस्तुतः आगम में जो मनुष्यनो में १४ गुणस्थानों की संभावना स्वीकार की गई है, वह स्त्री-वेद के आधार पर नहीं, अपितु स्त्रीलिंग (स्त्री रूपी शरीर रचना ) के आधार पर हो है। आगम में गतिमार्गणा के सन्दर्भ में पर्याप्त मनुष्यनी में गुणस्थानों की चर्चा हुई है और गति की चर्चा वर्तमान भव को अपेक्षा से ही की जाती है। अतः मनुष्यनी का अर्थ भाव-स्त्री अर्थात् स्त्रैण वासना से युक्त पुरुष करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भाव या वेद को चर्चा तो भिन्न अनुयोग द्वार में की गई है। अतः आगम अर्थात् षट्खण्डागम में मनुष्यनी का अर्थ भाव-स्त्रो न होकर द्रव्य-स्त्री हो है और यदि आगमानुसार मनुष्यनी में १४ गुणस्थान सम्भव है तो फिर उसकी मुक्ति भी सम्भव है। इस. प्रकार यापनीय परम्परा आगमिक आधारों पर स्त्री मुक्ति को समर्थक रही है।" अन्यतैर्थिक और गृहस्थ मुक्ति का प्रश्न स्त्रो-मुक्ति के साथ-साथ दो अन्य प्रश्न भी जुड़े हुए हैं, वे हैं, अन्य-- तैर्थिक को मुक्ति एव' सवस्त्र की मुक्ति ( गृहस्थ-मुक्ति )। यह स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन आगमों में स्त्रो-मुक्ति के साथ-साथ अन्य तैर्थिकों ( अन्यलिंग ) और गृहस्थों की मुक्ति को भी स्वीकार किया १. विस्तृत विवरण हेतु देखे-स्त्री निर्वाण प्रकरण, शाकटायन । सभी तर्क उसो ग्रन्थ पर आधारित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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