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________________ यापनीय संघ को विशिष्ट मान्यताएं : ४०९ पुनः मावस्त्रो अर्थात् स्त्रीवेद की उपस्थिति में तो मुक्ति संभव नहीं होती है, वेद ( कामवासना ) तो नवे गुणस्थान में ही समाप्त हो जाता है। मुक्ति शरीर की उपस्थिति में सम्भव है, क्योंकि शरीर तो चौदहवें गुणस्थान अर्थात् मुक्ति के क्षण तक रहता है । पुनः पुरुष शरीर में स्त्रीवेद अर्थात् पुरुष द्वारा भोगे जाने सम्बन्धो कामवासना अथवा स्त्री शरीर में पुरुष वेद अर्थात स्त्री को भोगने सम्बन्धी कामवासना का उदय मानना भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से युक्ति संगत नहीं । यदि यह माना जायेगा कि पुरुष को आंगिक संरचना में स्त्रो रूप से भोगा जाना और स्त्री को शारीरिक संरचना में पुरुष रूप से स्त्रो को भोग करना सम्भव है तो फिर समलिंगी विवाह व्यवस्था को भो मानना होगा। साथ हो यदि पुरुष में स्त्री वेद का उदय अर्थात दूसरे पुरुष के द्वारा स्त्री रूप में भोगे जाने सम्बन्धी कामवासना का उदय संभव मानेंगे, तो फिर मुनियों का परस्पर साथ में रहना भी सम्भव नहीं होगा क्योंकि किसी श्रमण में कब स्त्रो वेद का उदय हो जाय यह कहना कठिन होगा और स्त्री वेदो श्रमण के साथ पुरुष वेदी श्रमण का रहना श्रमण के आचार नियमों के विरुद्ध होगा। किसी भी व्यक्ति में भिन्न "लिंगो कामवासना को मानना संभव नहीं है। व्यवहार में तो बाह्य शरीर रचना के आधार पर ही निर्णय लिये जाते हैं अतः मनुष्यनी शब्द का अर्थ स्तन, योनि आदि से युक्त मनुष्यनी ( मानव स्त्री) ही है न कि स्त्रो सम्बन्धो कामवासना से युक्त पुरुष । पुनः इस कथन का कोई प्रमाण भी नहीं है कि पुरुष शरीर-रचना में स्त्रैन कामवासना का उदय होता है। ऐसी स्थिति में यह भी मानना होगा कि स्त्रो शरीर में भो पूरुष सम्बन्धी कामवासना अर्थात् स्त्री को .. भोगने का इच्छा उत्पन्न होती होगी। ऐसी स्त्रो भाव-पुरुष होगी, जब द्रव्य पुरुष भाव-स्त्रो हो सकता है तो दव्य-स्त्री भी भाव-पुरुष हो सकेगो और पुरुष मुक्ति मानने पर द्रव्य स्त्रो रूपी भाव-पुरुष को मुक्ति माननो होगो अर्थात् स्त्रो-मुक्ति भी सिद्ध हो जायगी। वस्तुतः यह तर्क समोचोन नहीं है। ज्ञातव्य है कि जैन परंपरा में वेद और लिंग दो अलग-अलग शब्द रहे हैं । लिंग का तात्पर्य शारीरिक संरचना अथवा बाह्य चिह्नोंसे होता है जबकि वेद का तात्पर्य कामवासना सम्बन्धी मनाभावों से होता है। सामान्यतया जैसो शरीर रचना होतो है, तद्रूप हो वेद अर्थात् कामवासना का उदय होता है। यदि किसी व्यक्ति में अपनो शरीर रचना से भिन्न प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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