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यापनोय संघ की विशिष्ट यान्यताएँ : ४११ः गया है। उसको मान्यता यह थी कि व्यक्ति चाहे किसी अन्य परम्परा में दीक्षित हुआ हो या गृहस्थ हो हो, यदि वह समभाव की साधना में पूर्णता प्राप्त कर लेता है, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर वोतराग दशा को प्राप्त हो जाता है, तो वह अन्य तैथिक के या गृहस्थ के वेश में भो मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष एवं नपुसक की तथा वेश की अपेक्षा से स्वलिंग ( निग्रंथ मुनिवेश में ) अन्य लिंग ( तापस आदि अन्यतैर्थिक के वेश) एवं गहीलिंग ( गृहस्थवेश) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहक, असित देवल, नारायण आदि ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेष-भूषा का अनुसरण करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने के स्पष्ट उल्लेख है। ऋषिभाषित में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमणपरम्पराओं के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। वस्तुतः मुक्ति का सम्बन्ध मात्मा को विक्षुद्धि से है, उसका बाह्य वेश या स्त्रोपुरुष आदि के शरीर से कोई संबंध नहीं है। श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो, दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म परंपरा का हो, यदि वह समभाव से युक्त है तो अवश्य मोक्ष को १. इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुगसा । सरिंगे बन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य॥
उत्तराध्ययन सूत्र, (संपा०) साध्वी श्री चन्दना, ३६/९९,. २. आहेसु महापुरिसा पुब्धि तत्ततपोषणा।
उदएण सिद्विमावन्ना तत्थ मंदो विसोयति ।। अभुजिया नमि विदेही, रामपुत्ते य भुजिया । बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसो ।। असिते दविले चेव दीवायण महारिसी। पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ।। एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह सम्मता । भोच्चा बोओदगं सिद्वा इति मेयमणुस्सुअं ।।
-सूत्रकृतांग, १/३/४/१-४ ३. देवनारदेण अरहता इसिणा बुइयं ।
इसिगासियाई, १/१ संपा• महोपाध्याय विनयसागर जी,
प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी जयपुर ४. सेयंबरो वा आसंबरो वा बुद्धो वा तहेव अन्नो वा ।
समभाव भाविप्पा लहइ मोक्खं ण संदेहो ॥
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