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________________ ४०६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय एक ही विधि उपकारी सिद्ध नहीं होती है, इसी प्रकार आचार में भी कोई जिनकल्प साधना के योग्य होता है तो कोई स्थविरकल्प की साधना के । इसलिए वस्त्र का त्याग नहीं होने से स्त्री के लिए मोक्ष का अभाव नहीं है । क्योंकि मोक्ष के लिए तो रत्नत्रय के अतिरिक्त अन्य कोई भी बात आवश्यक नहीं हैं। पुनः स्त्री को नग्नदीक्षा (प्रव्रज्या ) का निषेध कर देने का अर्थ भी उसकी मुक्ति की योग्यता का निषेध नहीं है। क्योंकि जिनशासन की प्रभावना के लिए उन व्यक्तियों की प्रव्रज्या का निषेध भी किया जाता है जो रत्नत्रय के पालन में सक्षम होते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी के अचेलदीक्षा के निषेध से उसकी मुक्ति का निषेध सिद्ध नहीं होता है । __ यदि यह कहा जाए कि स्त्रियाँ इसलिए भो सिद्ध नहीं हो सकती हैं. कि वे मुनियों के द्वारा वन्दनीय नहीं होती है । आगम में कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी भी एक दिन के नव-दीक्षित मुनि को वन्दन करे। इसके प्रत्युत्तर को शाकटायन कहते हैं कि मुनि के द्वारा वन्दनीय नहीं होने से उन्हें मोक्ष के अयोग्य मानोगे तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि अर्हत् ( तीर्थंकर ) के द्वारा वन्दनीय नहीं होने से कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारो नहीं होगा, क्योंकि अर्हत् किसी को भी वन्दन नहीं करता है। इसी प्रकार स्थविरकल्पी मनि जिनकल्पी मनि के द्वारा वन्दनीय नहीं है, अतः यह भी मानना होगा कि स्थविरकल्पी मुनि भी मोक्ष के अधिकारी नहीं है। इसी प्रकार जिन गणधर को वन्दन नहीं करते हैं अतः गणधर भी मोक्ष के अधिकारी नहीं है । वन्दन एक लौकिक व्यवहार है। वह मुक्ति का कारण नहीं है। मुक्ति का कारण तो व्रत पालन है और व्रत पालन में स्त्री पुरुष समान ही माने गए हैं । सभी सांसारिक विषयों में तो स्त्रियाँ पुरुषों से निम्न हो मानो जाती हैं । अतः मोक्ष के सम्बन्ध में भी उन्हें निम्न ही क्यों नहीं माना जाना चाहिए? तीर्थकर पद भी तो केवल पुरुष को ही प्राप्त होता है । इसलिए पुरुष ही मुक्ति का अधिकारी है। इसके प्रत्युत्तर में यापनीयों का तर्क यह है कि तीर्थंकर तो केवल क्षत्रिय होते हैं, ब्राह्मण, शद्र, वैश्य तो तोथंकर नहीं होते, तो फिर क्या यह माना जाये कि ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र मुक्ति के अधिकारी नहीं होते ? पुनःसिद्ध न तो स्त्री है, न पुरुष । अतः सिद्ध का लिंग से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यदि यह तर्क दिया जाए कि स्त्रियां कपटवृत्ति वाली या मायावी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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