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________________ यापनीय संघ को विशिष्ट मान्यताएं : ४०५ मानी जाती है। यह ज्ञातव्य है कि यदि हम हिंसा और अहिंसा की व्याख्या बाह्य घटनाओं अर्थात् द्रव्य-हिंसा (जीवघात) के आधार पर न करके व्यक्ति के मनोभावों अर्थात् कषायों की उपस्थिति के आधार पर करते हैं, तो फिर परिग्रह के लिए भी यही कसौटी माननी होगी। यदि हिंसा को घटना घटित होने पर भी कषाय एवं प्रमाद का अभाव होने से मुनि अहिंसक हो रहता है, तो फिर वस्त्र के होते हुए भो मच्छी के अभाव में साध्वी अपरिग्रही क्यों नहीं मानी जा सकती है ? ___ स्त्रो का चारित्र वस्त्र के बिना नहीं होता ऐसा अहंत ने कहा है, तो फिर स्थविरकल्पी आदि के समान उसकी मुक्ति क्यों नहीं होगी? ज्ञातव्य है कि स्थविरकल्पो मुनि भी जिनाज्ञा के अनुरूप वस्त्र-पात्र आदि ग्रहण करते हैं । पुनः अर्ष, भगन्दर आदि रोगों में जिनकल्पी अचेल मुनि को भा वस्त्र ग्रहण करना होता है फिर तो उनकी भी मुक्ति सम्भव नहीं होगी। पुन: अचेलकत्व उत्सर्ग मार्ग है, यह बात जब तक सिद्ध नहीं होगो तब तक सचेल मार्ग को अपवाद मार्ग नहीं माना जावेगा। उत्सर्ग भो अपवाद सापेक्ष है। अपवाद के अभाव में उत्सर्ग-उत्सर्ग नहीं रह जाता। यदि अचेलता उत्सर्ग मार्ग है, तो सचेलता भी अपवाद मार्ग है, दोनों हो मार्ग हैं अमार्ग कोई भी नहीं। अतः दोनों से ही मुक्ति मानना होगी। पुनः जिस तरह आगमों में आठ वर्ष के बालक आदि की दोक्षा का निषेध किया गया है, उसी प्रकार आगमों में यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति तोस वर्ष की आय को पारकर चका हो और जिसको दीक्षा को उन्नीस वर्ष व्यतीत हो गए हो, वही जिनकल्प को दोक्षा का अधिकारी है। यदि मुक्ति के लिए जिनकल्प अर्थात् नग्नता आवश्यक होती, तो यह भी कहा जाना चाहिए था कि तीस वर्ष से कम उम्र का व्यक्ति मुक्ति के अयोग्य है। किन्तु सभी परम्पराय एकमत से यह मानतो हो हैं, कि मुक्ति के लिए तीस वर्ष की आयु होना आवश्यक नहीं है। सामान्यतः इसका अर्थ हुआ कि जिनकल्प अर्थात् नग्नता के बिना भी मुक्ति सम्भव है, अतः स्त्री मुक्ति सम्भव है। आगमों में संवर और निर्जरा के हेतु रूप बहुत प्रकार की तप विधियों का निर्देश किया गया है। जिस प्रकार योग और चिकित्सा की अनेक विधियां होती हैं और किसी व्यक्ति को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार उनमें से कोई एक हो विधि उपकारी सिद्ध होती है। सबके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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