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________________ ४०४ : जैनधर्म का मापनीय सम्प्रदाय कारण परिग्रह के अन्तर्गत नहीं माना जाता तो फिर स्त्री के लिए तो वस्त्र भी जिनोपदिष्ट संयमोपकरण है, अतः उसे परिग्रह कैसे माना जा सकता है ? यद्यपि वस्त्रपरिग्रह है, फिर भी भगवान ने साध्वियों के लिये संयमोपकरण के रूप में उसको ग्रहण करने की अनुमति दी है, क्योंकि वस्त्र के अभाव में उनके लिए सम्पूर्ण चरित्र का ही निषेध हो जाएगा। जबकि वस्त्र धारण करने में अल्प दोष होते हुए भी संयम पालन हेतु उसको अनुमति दी गई है, जो संयम के पालन में उपकारी होता है, वह धर्मोपकरण या संयमोपकरण कहा जाता है, परिग्रह नहीं। अतः निर्ग्रन्थी का वस्त्र संयमोपकरण है, परिग्रह नहीं। आगमों में साध्वी के लिये निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ है। यदि यह माना जाये कि वस्त्र ग्रहण परिग्रह ही है तो फिर आगम में उसके लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना था क्योंकि निर्ग्रन्थ का अर्थ है, परिग्रह से रहित । यदि संयमोपकरण ही परिग्रह हो तो फिर कोई मुनि भी निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। यदि एक व्यक्ति वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित भी है किन्तु उसके मन में उनके प्रति कोई ममत्व नहीं हो, तो वह अपरिग्रही कहा जायेगा। इसके विपरीत एक व्यक्ति जो नग्न रहता है किन्तु उसमें ममत्व और मूर्छा का भाव है तो वह अचेल होकर भी परिग्रही की कहा जायेगा। साध्वी इसलिए वस्त्र धारण नहीं करतो हैं कि उसमें वस्त्र के प्रति कोई ममत्व है अपितु वह वस्त्र को जिन आज्ञा मानकर ही धारण करती है। पुनः वस्त्र उसके लिए उसो प्रकार परिग्रह नहीं है, जिस प्रकार यदि किसी ध्यानास्थ नग्न मनि के शरीर पर उपसर्ग के निमित्त से डाला गया वस्त्र उस मुनि के लिए परिग्रह नहीं होता। इसके विपरीत एक नग्न व्यक्ति भी यदि अपने शरीर के प्रति भी ममत्व भाव रखता है तो वह परिग्रही ही कहा जायेगा और ऐसा व्यक्ति नग्न होकर भी मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य ही होता है । जबकि वह व्यक्ति, जिसमें ममत्व भाव का पूर्णतः अभाव है, शरीर धारण करते हए भी अपरिग्रही ही कहा जायेगा । अतः जिनाज्ञा के कारण संयमोपकरण के रूप में वस्त्र धारण करते हुए भी नियमवान स्त्री अपरिग्रही हो है और मोक्ष की अधिकारी भी। जिस प्रकार जन्तुओं से व्याप्त इस लोक में मुनि के द्वारा द्रव्य हिंसा होती रहने पर भी कषाय के अभाव में वह अहिंसक ही माना जाता है, उसी प्रकार वस्त्र के सद्भाव में भी निर्ममत्व के कारण साध्वी अपरिग्रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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