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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४०३ असंगति बताने का कोई अर्थ नहीं है । यदि यह कहा जाय कि स्त्री में सातवें नरक में जाने की योग्यता का अभाव है, इसलिए वह निर्वाण प्राप्ति के योग्य नहीं है, किन्तु ऐसा अविनाभाव या व्याप्ति सम्बन्ध सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योंकि चरमशरीरी जीव भी तद्भव में - सातवें नरक में नहीं जा सकते हैं, किन्तु तद्भव मोक्ष जाते हैं । पुनः ऐसा कोई नियम नहीं है जो जितना निम्न गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है । कुछ प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते हैं, किन्तु उच्च गति में समानरूप से जाते हैं, जैसे सम्मूर्छिन जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, चतुष्पद चौथो नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पाँचवी नरक से आगे नहीं जा सकते । इस प्रकार निम्न गति में जाने में इन सब में भिन्नता है, किन्तु उच्चगति में ये सभी सहस्रार स्वर्गं तक बिना किसी भेदभाव के जा सकते हैं । इसलिए यह कहना कि जो जितनी निम्न गति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी हो उच्च गति तक जाने में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है । अधोगति में जाने की अयोग्यता से उच्च गति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती । यदि यह कहा जाय कि स्त्री वाद आदि की लब्धि से रहित, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित, जिनकल्प को धारण करने में और मनःपर्याय ज्ञान को प्राप्त कर पाने में असमर्थ होने के कारण स्त्री मुक्त नहीं हो सकती; तो फिर यह मानना होगा कि जिस प्रकार आगम में जम्बू स्वामी के पश्चात् जिन बातों के विच्छेद का उल्लेख किया है, उसी प्रकार स्त्री के लिए मोक्ष के विच्छेद का भी उल्लेख होना चाहिए था । यदि यह माना जावे कि स्त्री दीक्षा की अधिकारी नहीं होने के कारण मोक्ष की अधिकारी भी नहीं है, तो फिर आगमों में दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों की सूची में जिस प्रकार शिशु को दूध पिलाने वालो स्त्री तथा गर्भिणी स्त्रो आदि का उल्लेख किया गया, उसी प्रकार सामान्य स्त्री का भी उल्लेख किया जाना चाहिए था । पुनः यदि यह कहा जाये कि वस्त्र धारण करने के कारण स्त्री मोक्ष प्राप्ति की अधिकारी नहीं है, दूसरे शब्दों में वस्त्ररूपी परिग्रह हो उसको मुक्ति में बाधक है तो फिर प्रतिलेखन का ग्रहण आदि भी मुक्ति में बाधक क्यों नहीं होंगे ? यदि प्रतिलेखन का ग्रहण उसके संयमोपकरण होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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