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________________ ४०२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय चर्चा हुई है। ज्ञातव्य है कि हरिभद्र के समकालोन सिद्धसेनगणि ने अपनी तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति में भी सिद्धप्राभूत का एक सन्दर्भ दिया है। यह ग्रन्थ नन्दोसूत्र के पश्चात् एवं छठों-सातवीं शतो के पूर्व निर्मित हुआ होगा। इस प्रकार यापनीय परम्परा द्वारा ही सर्वप्रथम स्त्री-मुक्ति का ताकिक समर्थन करने का प्रयास हुआ है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्री-मुक्ति के समर्थन में जो तर्क दिये गये हैं, वे यापनीयों का ही अनुसरण है । ललितविस्तरा में अपनी ओर से एक भी नया तर्क नहीं दिया गया है, मात्र यापनीयों के तर्कों का स्पष्टीकरण किया है । इसका कारण यह है कि श्वेताम्बरों को स्त्री-मुक्ति निषेधक परंपरा का ज्ञान यापनीयों के माध्यम से ही हुआ था। क्योंकि कुन्दकुन्द की स्त्री-मुक्ति निषेधक परम्परा सुदूर दक्षिण में ही प्रस्थापित हुई थी, अत: उसका उत्तर भी दक्षिण से अपने पैर जमा रही यापनीय परम्परा को हो देना पड़ा। यापनीय आचार्य शाकटायन ने तो स्त्री-निर्वाण प्रकरण नामक स्वतंत्र प्रन्थ की ही रचना की है। वे ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कहते हैं कि मुक्ति प्रदाता विमल अर्हत् के धर्म को प्रणाम करके मैं संक्षेप में स्त्री-निर्वाण और केवली-भुक्ति को कहूँगा । इसी ग्रन्थ में आगे शाकटायन कहते हैं कि "रत्नत्रय की सम्पदा से युक्त होने के कारण पुरुष के समान हो स्त्रो का भी निर्वाण संभव है। यदि यह कहा जाय कि स्त्रोत्व रत्नत्रय की उपलब्धि में वैसे ही बाधक है, जैसे देवत्व आदि, तो यह तुम्हारा अपना कथन हो सकता है । आगम में और अन्य ग्रन्थों में इसका कोई प्रमाण नहीं है । एक साध्वी जिन वचनों को समझती है, उन पर श्रद्धा रखती है और उनका निर्दोषरूप से पालन करती है, इसलिए रत्नत्रय को साधना का स्त्रीत्व से कोई भी विरोध नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि रत्नत्रय को साधना स्त्रो के लिए अशक्य है, क्योंकि जो अदृष्ट है उसके साथ १. अत्थि तित्थकरसिद्ध तित्थकरतित्थे, नोतित्थसिद्धा तित्थकरतित्थे, तित्थसिद्धा तित्थकरतित्थे, तित्थसिद्धाओ तित्थकरी सिद्धा तित्थकरी तित्थे णोतित्थसिद्धा तित्थकरोतित्थे तित्थसिद्धा तित्थकरोतित्थे । -तत्त्वार्थधिगमसूत्र, स्वोपज्ञभाष्येण श्री सिद्धसेनगणिकृत टोका च समलंकृतम् द्वितीयो विभागे, १०/७, पृ० ३०८ २. शाक्टायन व्याकरणम्, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन के प्रारम्भ में परिशिष्ट के रूप में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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