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यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ४०७ होतो है तो इसका प्रत्युत्तर यह है कि व्यवहार में तो पुरुष भी मायावी देखे जाते हैं।
पुनः यदि यह कहा जाये कि पुरुष के समान स्त्रियों के कोई भी सिद्ध क्षेत्र उल्लिखित नहीं है तो यह बात तो अनेक पुरुषों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । सभी पुरुषों के सिद्ध क्षेत्र तो प्रसिद्ध नहीं है ! ___ यदि यह तर्क प्रस्तुत किया जाये कि स्त्रियों में पुरुषार्थ की कमी होती है इसलिए वे मुक्ति की अधिकारी नहीं है। किन्तु हम देखते हैं कि आगमों में ब्राह्मी, सुन्दरी, राजमति, चन्दना आदि अनेक स्त्रियों के उल्लेख हैं, जो पुरुषार्थ और साधना में पुरुषों से कम नहीं थी। अतः यह तर्क भो युक्ति संगत नहीं है। __ पुनः एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि जो व्यक्ति बहुत पापो
और मिथ्या दृष्टिकोण से युक्त होता है वही स्त्री के रूप में जन्म लेता है। सम्यक्-दृष्टि प्राणी स्त्री के रूप में जन्म ही नहीं लेता। तात्पर्य यह है कि स्त्री-शरीर का ग्रहण पाप के परिणाम स्वरूप होता है इसलिए स्त्री-शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। साथ ही दिगम्बर परम्परा यह भी कहती है कि एक सम्यक् दृष्टि व्यक्ति स्त्री, पशु-स्त्री, प्रथम नरक के बाद के नरक, भूत-पिशाच आदि और देवी के रूप में जन्म नहीं लेता। पापी आत्मा ही इन शरीरों का धारण करता है। अतः स्त्री शरीर मुक्ति के योग्य नहीं है। इस सम्बन्ध में यापनीयों का कथन है कि दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता प्रमाण रहित है। दूसरे जब सम्यक-दर्शन का उदय होता है, तब सभी कर्म मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति के रह जाते हैं, ६९ कोटाकोटि सागरोपम स्थिति के कर्म तो मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी समाप्त कर सकता है। अतः सम्यक-दर्शन का उदय होने पर स्त्रियाँ अवशिष्ट मात्र एक कोटाकोटि सागरोपम के कर्मों को क्यों क्षय नहीं कर सकती हैं ? स्त्री में कर्म क्षय करने की शक्ति का अभाव मानना युक्तिसंगत नहीं हैं।
पुनः आगमों में स्त्री-मुक्ति के उल्लेख भी हैं। मथुरागम में कहा गया है कि एक समय में अधिकतम १०८ पुरुष, २० स्त्रियाँ और १० नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं।' ज्ञातव्य है कि यह उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र का है,
१. दस चेव नपुसेसु वीसं इत्थियासु य । पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झइ ॥
-उत्तराध्ययन, ३६०५१, पृ० ३८७, साध्वी चंदना, वीरायतन प्रकाशन
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