SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय-प्रवेश : २५ कलाई पर वस्त्र डालकर नग्नता को छिपा लिया जाता था, विशेष रूप से जब भिक्षादि हेतु नगर में जाना होता था। शिवभूति का आर्यकृष्ण से इसी प्रश्न को लेकर विवाद हआ । जहाँ आवश्यकमूलभाष्य में आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बताया गया है, वहाँ कल्पसूत्र स्थविरावली में शिवभूति को आयंकृष्ण के पहले दिखाया गया है । फिर भी दोनों को समकालिकता में कहीं बाधा नहीं आती है। वस्तुतः विवाद दोनों के बीच हुआ था इसमें कोई सन्देह नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में भी रत्नकम्बल के प्रसङ्ग को लेकर, जो कथानक खड़ा किया गया है वह मुझे प्रामाणिक नहीं लगता । वस्तुतः महावीर के पश्चात् उनके संघ में वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का क्रमशः विकास हुआ है । क्षुल्लकों और सदोषलिङ्ग वाले व्यक्तियों अथवा राजपरिवार से आये व्यक्तियों के ‘लिए अपवादरूप में वस्त्र रखने की अनुमति पहले से ही थी, किन्तु जिन कल्प का विच्छेद मानकर जब सचेलता सामान्य नियम बनने लगी, तो 'शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग स्थापित करने का प्रयत्न किया। उनके पूर्व आर्यरक्षित को भी अपने पिता, जो उनके ही संघ में दीक्षित हो गये थे, नग्नता धारण करवाने हेतु विशेष प्रयत्न करना पड़ा था, क्योंकि वे अपने परिजनों के समक्ष नग्न नहीं रहना चाहते थे। यद्यपि इन्हीं आर्यरक्षित ने भिक्षा पात्र के अतिरिक्त वर्षाकाल में मल-मूत्र आदि के लिए एक अतिरिक्त पात्र रखे जाने की अनुमति भो दी थी। महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थ संघ में नग्नता का एकान्त आग्रह नहीं था, किन्तु उसे अपवाद के रूप में हो स्वीकृत किया गया था। किन्तु जब जिनकल्प को विच्छिन्न मानकर अचेलता के अपवाद को हो उत्सर्ग मानकर नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्र रखना अनिवार्य किया होगा, तो शिवभूति को अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा होगा। उन्होंने जिनकल्प को विच्छिन्न न मानकर समर्थ के लिए अचेलता और पाणीतलभोजी होना आवश्यक माना। आपवादिक स्थिति में वस्त्र-पात्र से उनका विरोध नहीं था। “भगवतीआराधना में हमें उनके इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उनके द्वारा अचेलकत्व के पुन पिन के इस प्रयास से स्पष्ट रूप से संघभेद हो गया था, क्योंकि कल्पसूत्र को पट्टावलो में जो अन्तिम परिवर्धन देवद्धिगणि के समय पाँचवीं शताब्दी में हुआ उसको पहली गाथा में गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र, वशिष्ठगोत्रीय धनगिरि, कोत्सगोत्रीय शिवभूति और कोशिकगोत्रीय दुर्जयन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy