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________________ २४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय जिससे काल-क्रम से वर्तमान श्वेताम्बर धारा का विकास हुआ है। वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्र-पात्र आदि में वृद्धि होने लगी और अचेलकत्व की प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, तब उससे अचेलता के पक्षधर यापनोय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें निकलीं। पुनः यापनीय सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तर भारत में हुआ। “यापनीयों ने जब दक्षिण भारत में प्रवेश किया, तब वे श्वेताम्बर साधु के वेश में गये थे-यह एक भ्रान्त धारणा ही हैं। उनके कथन में मात्र इतनी हो सत्यता हो सकती है कि यापनीयों के आचारविचार में कुछ बातें श्वेताम्बर परम्परा के समान और कुछ बातें दक्षिण में उपस्थित दिगम्बर परम्परा के समान थीं। ___इन्द्रनन्दी के 'नोतिसार' में यद्यपि यापनीयों की उत्पत्ति-कथा नहीं दी गई है, किन्तु निम्न पाँच प्रकार के जैनाभासों की चर्चा करते हुए उसमें उन्होंने यापनीयों का भी उल्लेख किया है-गोपुच्छिक, श्वेतवासा, द्रविड़, यापनीय और निःपिच्छक' । इन्द्रनन्दी के उपर्युक्त कथन से मात्र इतना ही फलित होता है कि यापनीय परम्परा इन्द्रनन्दी की मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से भिन्न थी, वे उन्हें जैनाभास मानते थे अर्थात् उनकी दृष्टि में यापनीय जैनधर्म के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। वस्तुतः यापनीय संघ की उत्पत्ति और स्वरूप सम्बन्धी जो कथानक मिलते हैं, वे सभी विरोधियों द्वारा प्रस्तुत हैं और संघ की यथार्थ स्थिति से अवगत नहीं कराते हैं । यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मेरा चिन्तन इस प्रकार है-मथुरा के अङ्कनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यकृष्ण के समय अर्थात् विक्रम को दूसरी शताब्दी में जैनमुनि एक वस्त्र, पिच्छि या रजोहरण एवं पात्र धारण करने लगे थे। हो सकता है कि छेदसूत्रों में वर्णित १४ उपकरण पूर्ण रूप से प्रचलित न भी हो पाये हों, किन्तु इतना अवश्य है कि वस्त्र रखकर नग्नता छिपाने का प्रयत्न और भिक्षा पात्रों का प्रयोग होने लगा था। एक वस्त्रखण्ड मुखवस्त्रिका के रूप में भी ग्रहण किया जाता था। हाथ की १. भद्रबाहुचरित-कोल्हापुर १९२१, IV,, पृ० १३५-१५४ देखें अनेकान्त. वर्ष २८, किरण १। १. गोपुच्छिकाः श्वेतवासाः द्राविडो यापनीयकाः । निःपिच्छिकश्चेति पंचते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥ देखें अनेकान्त, वर्ष २८ किरण १, पृ० २४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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