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________________ २६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय कृष्ण का उल्लेख है । यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि इसमें शिवभूति के पश्चात् आर्यकृष्ण का उल्लेख है जबकि आवश्यकमूलभाष्य में शिवभूति को आर्यकृष्ण का शिष्य बताया गया है। सम्भावना यह हो सकती है कि शिवभूति और आर्यकृष्ण गुरु-शिष्य न होकर गुरु बन्धु हों। इससे शिवभूति और आर्यकृष्ण के समकालिक होने में भी कोई बाधा नहीं आती है । यह भो सत्य ही है कि उपधि के प्रश्न को लेकर शिवभूति और आर्यकृष्ण के बीच यह विवाद हआ और शिवभूति के शिष्यों कौडिन्य और कोट्यवीर से अचेलता की समर्थक यह धारा पृथक् रूप से प्रवाहित होने लगी होगी। यापनीयों का उत्पत्ति-स्थल यापनोयों अथवा बोटिकों के उत्पत्ति-स्थल को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं। श्वेताम्बरों के अनुसार उनको उत्पत्ति रथवीरपुर नामक नगर में हई, यह नगर मथुरा के समीप उत्तर भारत में स्थित था। जबकि दिगम्बरों के अनुसार इनका उत्पत्ति स्थल दक्षिण भारत में कल्याण या उत्तर पश्चिमी कर्णाटक में स्थित करहाटक था। इस प्रकार श्वेताम्बरों के अनुसार वे उत्तर में और दिगम्बरों के अनुसार दक्षिण में उत्पन्न हए । प्रश्न यह है कि इनमें से कौन सत्य है ? श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में तथ्य यह है कि उसमें इस विभाजन को आर्यकृष्ण और शिवभूति से सम्बन्धित किया गया है-इन दोनों के उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है। पुनः आर्यकृष्ण को अभिलेख सहित मूर्ति भी मथुरा से उपलब्ध है जो वस्त्रखण्ड कलाई पर डालकर अपनी नग्नता छिपाये हुए है । अस्तु, आवश्यकमूलभाष्य का उत्तर भारत में उनकी उत्पत्ति का संकेत प्रामाणिक है । जहाँ तक रत्ननन्दो के दक्षिण भारत में इनकी उत्पत्ति के उल्लेख का प्रश्न है, वह इसलिए अधिक प्रामाणिक नहीं है कि प्रथम तो वह उनकी उत्पत्ति १२०० वर्षों बाद जब यह सम्प्रदाय मरणासन्न स्थिति में था तब लिखा गया, जबकि आवश्यक मूलभाष्य उनकी उत्पत्ति के लगभग २०० वर्ष पश्चात् निर्मित हो चुका था। दूसरे उस कथानक की पुष्टि के अन्य कोई साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य नहीं हैं । तीसरे दसवीं शती से पहले 'कल्याण' का अस्तित्व ही संदिग्ध है । दक्षिण भारत में उनको उत्पत्ति बताने का मूल कारण यह है कि यापनोयों का दिगम्बर परम्परा से साक्षात्कार दक्षिण भारत में ही हुआ था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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