________________
३९२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
उत्पत्ति की कथा दो गयी है, किन्तु यह कथा भो परवर्ती काल को है और पूर्णतः काल्पनिक लगती है। प्रो. उपाध्धे ने भी इसे प्रामाणिक नहीं माना है। मेरी दृष्टि में इस कथा में सत्यांश यही है कि वस्त्रधारी साधुओं द्वारा पुनः अचेलकत्व ग्रहण करने से इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई, जो मान्यताओं को दृष्टि से श्वेताम्बरों के निकट होते हुए भी बाह्यवेश की दृष्टि से दिगम्बरों के निकट था।
श्रुतसागर ने दर्शनप्राभृत ( दंसणपाहुड ) को टोका में यापनीयों की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि 'यापनीय खच्चर के समान दोनों अर्थात् श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं को स्वीकार करते हैं । रत्नत्रय की पूजा भी करते हैं और कल्पसूत्र का वाचन भी करते हैं । साथ ही स्त्री की तद्भवमुक्ति, केवलो-कवलाहार, सग्रन्थ ( वस्त्रयुक्त ) को मुक्ति और परशासन ( अन्य तैर्थिक ) से मुक्ति का कथन करते हैं।' अन्यत्र श्रुतसागर ने अपनी टीका में यह भी लिखा है कि "जैनाभासों द्वारा जिसमें यापनोय भी सम्मिलित हैं, नग्न मूलियों को प्रतिष्ठा की जाती है, वे मूर्ति याँ न तो वन्दनीय हैं और न पूजनोय । इससे यह फलित होता है कि यापनोय भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते थे।
इन सामान्य कथनों के अतिरिक्त दिगम्बर साहित्य में यापनीयों का कोई विस्तत उल्लेख नहीं मिलना आश्चर्यजनक है। इतना अवश्य है कि अधिकांश दिगम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति एवं केवलोभुक्ति के खण्डन में पूर्वपक्ष के रूप में शाकटायन के तर्कों को हो आधार बनाया है। आगे हम यापनीयों की प्रमुख मान्यताओं को चर्चा करेंगे।
स्त्री मुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न
यापनोय परम्परा के विशिष्ट सिद्धान्तों में स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थमुक्ति, ( गृहस्थमुक्ति ) और अन्यतैर्थिक मुक्ति ऐसो अवधारणाएं हैं, जो उसे दिगम्बर परम्परा से पृथक करती है। एक ओर यापनोय संघ अचेलकत्व (दिगम्बरत्व ) का समर्थक है, तो दूसरी ओर वह स्त्रीमुक्ति, सग्रन्थ ( गृहस्थ ) मुक्ति अन्यतैर्थिक ( अन्य लिङ्ग) मक्ति आदि का भी समर्थक है। यही बात उसे श्वेताम्बर आगमिक परम्परा के निकट लाकर खड़ा
१. देखें-दसणपाहुड, श्रुतसागर को टीका। २. वही।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org