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________________ यापनीय संघ की विशिष्ट मान्यताएँ : ३९३ कर देती । यद्यपि स्त्री मुक्ति की अवधारणा श्वेताम्बर मान्य उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा आदि प्राचीन आगम साहित्य में भी उपस्थित रही है, फिर भी तार्किक रूप से स्त्रीमुक्ति का समर्थन सर्वप्रथम यापनीयों ने ही किया है। स्त्रीमुक्ति के निषेध के स्वर सर्वप्रथम ५वीं - ६वीं शती में दक्षिण भारत में ही मुखर हुए और चूँकि वहाँ आगामिक परम्परा को मान्य करने वाला यापनीय संघ उपस्थित था, अतः उसे हो उनका प्रत्युत्तर देना पड़ा । श्वेताम्बरों को स्त्रो - मुक्ति सम्बन्धी विवाद की जानकारी यापनोयों से प्राप्त हुई । श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ( ८वीं शतो ) ने सर्वप्रथम इस चर्चा को अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में 'यापनीय तन्त्र' के उल्लेख के साथ उठाया है । इसके पूर्व भाष्य और चूर्णि - साहित्य में यह चर्चा अनुपलब्ध है । इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम तो हमें यह 'देखना होगा कि इस तार्किक चर्चा के पहले स्त्रीमुक्ति के समर्थक और 'निषेधक निर्देश किन ग्रन्थों में मिलते हैं ! सर्वप्रथम हमें उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तिम अध्ययन ( ई०पू० द्वितीय- प्रथम शती) में स्त्री को तद्भव मुक्ति का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है" । ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा के अतिरिक्त यापनीय परम्परा में भी उत्तराध्ययन को मान्यता थी और उसके अध्ययन-अध्यापन की परम्परा उसमें लगभग ९वीं शती तक जीवित रही है क्योंकि अपराजित ने अपनो भगवतीआराधना को टोका में उत्तराध्ययन से अनेक गाथाएं उद्धृत की है, जो क्वचित पाठभेद के साथ वर्तमान उत्तराध्ययन में भी उपलब्ध है । • समवायांग, नन्दोसूत्र आदि श्वेताम्बर मान्य आगमों में, तत्त्वार्थभाष्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं में एवं षट्खण्डागम को धवलाटोका में भी अंगबाह्य ग्रन्थ के रूप में उत्तराध्ययन का उल्लेख पाया जाता है । पाश्चात्य विद्वानों ने उत्तराध्ययन को ई० पूर्व तृतीय से ई० पू० प्रथम शती के मध्य को रचना माना है । उत्तराध्ययन को अपेक्षा " किंचित परवर्ती श्वेताम्बर मान्य आगम ज्ञाताधर्मकथा ( ई० पू० प्रथम शती) के मल्लि नामक अध्याय ( ई० सन् प्रथमशती ) में तथा अन्तकृतदशांग के अनेक अध्ययनों में स्त्रो मुक्ति के उल्लेख हैं । आगामिक १. उत्तराध्ययन, ३६ ४, साध्वी चन्दना, वीरायतन प्रकाशन । इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसणा । सलिंगे अन्नलिंगे य गिलिगे तहेव य ॥ २. ज्ञाताधर्मकथा, अष्टम् अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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