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________________ ३९० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय यापनियों की अन्य मान्यताओं के सम्बन्ध में हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में कोई चर्चा नहीं की है। इस उल्लेख से मात्र इतना ही फलित होता है कि यापनीय स्त्री की तद्भव मुक्ति के समर्थक थे। हरिभद्रसूरि ने यापनोय तन्त्र से एक उद्धरण देकर उसकी विस्तृत व्याख्या भी की है। यहाँ उनकी व्याख्या में न जाकर मात्र उनके मूल कथन का ही उल्लेख किया जा रहा है । यापनियों का तर्क था कि स्त्री न तो अजीव ( जड़ ) है, नः अभव्य है, वह दर्शन विरोधो भी नहीं है, वह न तो अमनुष्य है और न अनार्य है । वह असंख्य आयु वाली भी नहीं है । वह न तो अतिक्रूर प्रकृति की है और न अनुपशांत मोह ( अदमित कषाय ) है और न शुद्धाचार से रहित है, वह अशुद्ध शरीर भी नहीं है, न वह व्यवसाय वजित है, न अपूर्वकरण की विरोधिनी है, न वह नवमगुणस्थान से रहित है और न लब्धि के अयोग्य है। वह अकल्याण को भाजन भी नहीं है तो फिर वह उत्तम धर्म की साधक क्यों नहीं हो सकती है?' हरिभद्र ने यापनीय परम्परा के जिस प्राकृत ग्रन्थ से यह संदर्भ दिया है, वह ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, विद्वानों को इस दिशा में खोज करना चाहिए, शायद किसी शास्त्र-भण्डार में वह उपलब्ध हो जाये। हरिभद्रसूरि के उपयुक्त विवरण के पश्चात् हरिभद्र के ही ग्रन्थ षड्दर्शनसमुच्चय को टीका में गुणरत्न ने दिगम्बरों के काष्ठासंघ, मलसंघ, माथुरसंघ और गोप्य (यापनीय ) संघ का विवरण देते हुए यापनीयों की मान्यता का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि यापनीय संघ के मुनि नग्न रहते हैं, मयूरपिच्छी रखते हैं और पाणितलभोजी होते हैं। वे नग्न प्रतिमा को पूजते हैं तथा वन्दन करने वाले श्रावकों को धर्मलाभ देते हैं। उनकी ये सब बातें दिगम्बरों के समान हैं, किन्तु वे यह भी मानते हैं कि स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है, केवली भोजन करते हैं और सग्रन्थ अवस्था (सवस्त्र या गृहीवेश) एवं परशासन १. यापनीयतन्त्रे-" णो खलु इत्थी अजीवो ण यावि अभव्या ण यावि दंस णविरोहिणी णो अमाणुसा अणारिउप्पत्ती णो असंखेज्जाउया णो अइकूरमई णो ण उवसन्तमोहा णो ण सुद्धाचारा णो असुद्धबोंदी णो ववसायवज्जिया णो अपुन्वकरणविरोहिणी णो णवगुणठाणरहिया णो अजोगा लद्धीए णो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिग ।" -हरिभद्रसूरि, श्री ललितविस्तरा, पृ० ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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