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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३५९ कि भाष्यकार ने यह अतिदेश से कही है। मैंने तो आगम में कहीं यह प्रतरादि भेद से नारकीयों को अवगाहना नहीं देखी' ।
३-अ० ३, सू० ९ के भाष्य में जो परिहाणि बतलाई है, उसके विषय में सिद्धसेन कहते हैं कि यह परिहाणि गणित प्रक्रिया के साथ जरा
भी ठीक नहीं बैठती। आर्षानुसारी गणितज्ञ इसे अन्यथा ही वर्णन करते हैं । हरिभद्रसूरि को भी इसमें कुछ संदेह हुआ है।
४-अ० ३, सूत्र १५ के भाष्य की टीका करते हुए सिद्धसेन लिखते हैं, इस अन्तरद्वीपक भाष्य को दुर्विदग्धों ने प्रायः नष्ट कर दिया है जिससे भाष्य पुस्तकों में ( भाष्येषु ) १६ अन्तरद्वोप मिलते हैं। पर यह अनार्ष है। वाचकमुख्य सूत्र का उल्लंघन नहीं कर सकते। यह असंभव है।
५-अ० ४, सूत्र ४२ के भाष्य पर सिद्धसेन कहते हैं कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्ध में भी जघन्य आयु बत्तीस सागरोपम बतलाई है, सो न जाने किस अभिप्राय से, आगम में तो तेतीस सागरोपम है। १. "उक्तमिदमतिदेशतो भाष्यकारेणास्ति चैतत् न तु मया क्वचिदागमे दृष्टं
प्रतरादिभेदेन नारकाणां शरीरावगाहनमिति ।" २. "एषा च परिहाणिः आचार्योक्ता न मनागपि गणितप्रक्रियया संगच्छन्ते ।
गणितशास्त्रविदो हि परिहाणि मन्यथा वर्णयन्त्यागमानुसारिणः।" ३. गणितज्ञा एवात्र प्रमाणं । ४. सर्वार्थसिद्धि और तिलोयपण्णत्ति आदि दिगम्बर-ग्रन्थों में भी ९६ ही अन्तर
द्वीप बतलाये हैं । भाष्य में भी ९६ का ही पाठ रहा होगा । परन्तु आश्चर्य है कि मुद्रित भाष्यपाठों में ५६ ही अन्तरद्वीप मुद्रित हैं और उक्त भाष्यांश के नीचे ही ५६ अन्तरद्वीपों की सूचना देनेवाली सिद्धसेन की तथा हरिभद्र की टीका मौजूद है । प्रतिलिपिकारों अथवा मुद्रित करानेवालों का यह अपराध अक्षम्य है। "एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपिका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात् । नापि च वाचकमुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधत्यसम्भाव्यमानत्वात् ।..."
(हरिभद्रीयवृत्ति में भी बिल्कुल यही पाठ है।) ६. "भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या द्वात्रिंशत्सागरोपमान्यधीता, तन्न
विद्मः केन अभिप्रायेण । आगमस्तावदयं"।"
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