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________________ ३५८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के अन्तर्गत मरणविभक्ति एक प्राचीन प्रकीर्णक हैं, इसकी ५७० से लेकर ६४० तक की ७१ गाथाओं में बारह भावनाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। मरणविभक्ति की भावना सम्बन्धो इन ७१ गाथाओं में भी अनेक भगवती-आराधना और मूलाचार में उपलब्ध होती हैं। अतः तत्त्वार्थ-भाष्य, भगवती-आराधना और मलाचार में, जो साम्य परिलक्षित होता है, वह इन तीनों के कर्ताओं द्वारा का आगमिक ग्रन्थों के अनुसरण के कारण ही है। भगवती-आराधना और मूलाचार यापनीय ग्रन्थ हैं और यापनीय आगम मानते थे। मरणविभक्ति तत्त्वार्थ-भाष्य से प्राचीन है, वस्तुतः यापनीय और तत्त्वार्थ-भाष्य में जो समरूपता है, उसका कारण यह है कि उन दोनों का मूल स्रोत एक ही है। इसलिए दोनों को निकटता से यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि तत्त्वार्थभाष्य यापनीय है। भावनाओं की चर्चा के आधार पर उन्हें जिस प्रकार यापनीय सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार श्वेताम्बर भी सिद्ध किया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि वे इन दोनों सम्प्रदायों के पूर्वज हैं। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इसके अतिरिक्त भाष्य का श्वेताम्बर सम्प्रदाय से किन बातों में विरोध आता है और जिसे भाष्य के वृत्तिकार. सिद्धसेनगणि आगम विरोधी मानते हैं, इसको चर्चा की है, इस सन्दर्भ में उन्होंने निम्न सात प्रश्न उपस्थित किये हैं जिन्हें हम अविकल रूप में नीचे प्रस्तुत कर रहे है १-अध्याय २, सूत्र १७ के भाष्य में उपकरण के दो भेद किये हैं, बाह्य और अभ्यन्तर । इसपर सिद्धसेन कहते हैं कि आगम में ये भेद नहीं. मिलते । यह आचार्य का हो कहीं का सम्प्रदाय है । २-अध्याय ३, सूत्र के भाष्य में रत्नप्रभा के नारकीयों के शरीर की ऊँचाई ७ धनुष, ३ हाथ और ६ अंगुल बतलाई है। सिद्धसेन कहते है १. देखें-पइण्णयसुत्ताई-प्रथम भाग-सं० मुनि श्री पुण्यविजय जी, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई-मरण विभत्ति पइण्णयं-गाथा ५७०-६४०. (पृ० १५१ से १५७ तक )। २. देखे-जैन साहित्य और इतिहास-पं० नाथूरामजी प्रेमी पृ० ५३७-५३८ ३. "आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्र दाय इति ।" ४. तिलोयपण्णत्ति में तत्त्वार्थ-भाष्य के ही समान अवगाहना बतलाई गई है-. सत्त-ति-छ-हत्थंगुलाणि कमसो हवंति धम्माए । अ० २, ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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