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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३५७
का यह अन्तर उनकी परम्परा भिन्नता का सूचक है। सर्वार्थसिद्धिकार के 'लिए भावनाओं को मूलपाठ के अन्तर्गत रखना इसलिए भी आवश्यक था कि उसके पास आगम या आगमतुल्य कोई ग्रन्थ नहीं था । यही कारण है 'कि उसने उसे मूलपाठ में सम्मिलित किया। इससेसर्वार्थसिद्धि के मूलपाठ
के विकसित होने की और भाष्यमान्य पाठ से परवर्ती होने की सूचना भी "मिल जाती है। सर्वार्थसिद्धि में पाँचों महावतों की जिन भावनाओं का 'विवेचन है वे आगमों से आंशिक ही समानता रखती हैं। जबकि तत्त्वार्थभाष्य को विवेचना आगम एवं भगवतीआराधना के अनुकूल ही है। अन्त में पुनः हम यहो कहना चाहेंगे कि तत्वार्थभाष्य और भगवती आराधना में जो साम्य है वह आगमिक मान्यताओं के अनुसरण के कारण है, भाष्य के यापनीय होने के कारण नहीं, भाष्य तो यापनीय परम्परा के पूर्व का है। भाष्य तोसरो-चौथो शती का है और यापनीय सम्प्रदाय चौथी-पाँचवीं शती के पश्चात् हो कभी अस्तित्व में आया है।
भाष्य में यापनीयत्व को सिद्ध करने के लिए आदरणीय प्रेमी जी ने 'एक तर्क यह भी दिया है कि नवें अध्याय के सातवें सूत्र में अनित्य, अशरण आदि १२ अनुप्रेक्षाओं के नाम दिये गये है, भाष्य में कहा गया है 'एताद्वादशानुप्रेक्षाः' (ये बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं)। प्रेमी जी, डॉ० एन० 'एन० उपाध्ये के सन्दर्भ से यह भी बताते हैं कि आगमों में कहीं भो १२ अनुप्रेक्षाएँ नहीं मिलतीं, कहीं चार कहीं दो और कहीं एक मिलती हैं जबकि भगवतो आराधना को गाथा ७१५-७८ में इन्हों १२ भावनाओं का खूब विस्तार से वर्णन है, इससे भो उमास्वाति और भगवती आराधना के कर्ता एक ही परम्परा के मालुम पड़ते हैं। कम से कम उमास्वाति उस 'परम्परा के नहीं जान पड़ते जो इस समय उपलब्ध आगमों की अनुयायी नहीं है । मूलाचार में भी द्वादश अनुप्रेक्षाओं का विस्तृत विवरण है और वह भी आराधना की परम्परा का ग्रन्थ है।''
इस सन्दर्भ में आदरणीय प्रेमीजी को उपाध्ये जी द्वारा जो सूचना 'मिली है वह भ्रान्तिपूर्व है। यह कहना कि आगम में कहीं पूरी बारह अनुप्रक्षाएं नहीं मिलती हैं, श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य का सम्यक् अनुशीलन न होने का ही परिणाम है। आगम साहित्य में न केवल १२ अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख है अपितु उनका क्रमबद्ध विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। श्वे० मान्य आगमों का एक वर्ग प्रकीर्णक कहा जाता है । प्रकीर्णकों १. जैन साहित्य और इतिहास-पं० नाथुरामजी प्रेमी पृ० ५३५
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