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________________ ३५६ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय म्बर है और न यापनीय, अपितु दोनों को ही पूर्वज है । अतः उमास्वाति श्वेताम्बर और यापनीय दोनों के पूर्व पुरुष हैं । पुनः उमास्वाति उस काल में हए हैं जबकि निर्ग्रन्थ संघ में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे भेद अस्तित्व में ही नहीं आये थे । अतः परवर्ती काल की इन साम्प्रदायिक पदावलियों में उनके सम्बन्ध में एकरूपता नहीं होना स्वाभाविक हैं। उनके तत्त्वार्थसूत्र की स्वीकृति और उसकी प्रसिद्धि के बाद ही श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं ने उन्हें अपनी पट्टावलियों स्थान देने का प्रयास किया और फलतः उनमें एकरूपता का अभाव रहा। भाष्य में यापनीयत्व सिद्ध करने के लिए पं० नाथूरामजी प्रेमी ने एक तर्क यह दिया है कि तत्त्वार्थभाष्य में अचौर्य व्रत की जो भावनाएँ उल्लेखित की गई हैं, वे सर्वार्थसिद्धि के अनुसार नहीं हैं, अपितु भगवती आराधना के अनुसार हैं। भगवती आराधना यापनीय ग्रन्थ है, निष्कर्ष रूप में वे कहते हैं कि-'इससे भी यह मालूम होता है कि भाष्यकार और भगवती आराधना के कर्ता एक ही सम्प्रदाय के हैं।" ___इस आधार पर भाष्य को यापनीय मानना आवश्यक नहीं, क्योंकि. भाष्य में अचौर्य व्रत की जो भावनाएँ उल्लेखित हैं, वे आचारांग और समवायांग में भी मिलती हैं। वस्तुतः आगम साहित्य से ही ये भावनाएँ भाष्य और भगवती आराधना में गई हैं। अतः यह कथन भाष्य के. यापनीयत्व का प्रमाण नहीं है। इससे केवल इतना ही फलित होता है कि भाष्य और भगवती आराधना दोनों में आगमों का अनुसरण हुआ है। इससे भाष्य और उसके कर्ता को आगम की उस परम्परा का अनुसरण कर्ता कहा जा सकता है, जो आगे चलकर यापनीयों में भी उपलब्ध होती. है । यापनीय ग्रन्थों से भाष्य की यह समानता मात्र इसी बात की सूचक है कि भाष्यकार यापनीय परम्परा का पूर्वज है न कि वह यापनीय है। महाव्रतों की भावनाओं का यह उल्लेख श्वेताम्बर मान्य आगमोंआचारांग, समवायांग, आचारांगणि, आवश्यकचणि आदि में मिलता है। शब्द एवं क्रम में कहीं थोड़ा-बहुत अन्तर है किन्तु मूल भावना में कहीं कोई अन्तर नहीं है । यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि तत्त्वार्थ के भाष्यमान्य मूल पाठ में भावनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। उसमें केवल इतना ही कहा गया है कि इन महाव्रतों की स्थिरता के लिए पाँचपाँच भावनाएँ कही गयी हैं । लेकिन सर्वार्थसिद्धि और भगवती आराधना १. जैनसाहित्य और इतिहास-पं० नाथूरामजी प्रेमी, पृ० ५३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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