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३६० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
६-अ० ४, सूत्र २६ के भाष्य में लोकान्तिक देवों के आठ भेद हैं। परन्तु भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, स्थानांगादि में नौ बतलाये हैं।'
७–अ० ९, सूत्र ६ के भाष्य में भिक्षुप्रतिमाओं के जो १२ भेद किये हैं, उनको ठीक न मानकर सिद्धसेन कहने हैं कि यह भाष्यांश परम ऋषियों के प्रवचन के अनुसार नहीं है किन्तु पागल का प्रलाप है। वाचक तो पूर्ववित होते हैं, वे ऐसा आर्षविरोधो कैसे लिखते ? आगम को ठोक न समझने से जिसे भ्रान्ति हो गई है ऐसे किसी ने यह रच दिया है।
इस तरह और भी अनेक स्थानों में वृत्तिकार ने आगम-विरोध बतलाया है, जिसका स्थान भाव से उल्लेख नहीं किया जा सका । इस विरोध से स्पष्ट समझ में आ जाता है कि भाष्यकार का सम्प्रदाय सिद्धसेनगणि के सम्प्रदाय से भिन्न है और वह यापनीय हो सकता है।
यह सत्य है कि उपयुक्त तथ्य श्वेताम्बर परम्परा की इन मान्यताओं के विरोध में जाते हैं जो भाष्य पर वृत्ति लिखे जाने के काल में स्थिर हो चुकी थी, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आगमों का संकलन होने तक अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर परम्परा में और यापनीय परम्परा में भी सैद्धान्तिक प्रश्नों पर आन्तरिक एकरूपता नहीं थी। आगमों का लेखन हो जाने के बाद भी श्वेताम्बर
और यापनोय परम्पराओं में जितने अधिक मतभेद और मान्यता भेद रहे हैं, उतने दिगम्बर परम्परा में नहीं थे। श्वेताम्बर आगम साहित्य में ये अन्तर्विरोध आज भी परिलक्षित होते हैं। यही स्थिति कसायपाहुड एवं षट्खण्डागम आदि यापनीय साहित्य की भी है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि से यह स्पष्ट है कि भद्रबाह के काल से उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ धारा जो श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज है, अनेक गणों, शाखाओं और कुलों में विभाजित होती गई। ये विविध गण, कुल एवं शाखाएँ न न केवल शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा के आधार पर बने थे, अपितु इनमें मान्यता भेद भी था। तब तत्त्व स्वरूप एवं कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यताओं के सन्दर्भ में अनेक मतभेद अस्तित्व में आ गये थे। उपलब्ध आग
१. "भाष्यकृता चाष्टविधा इति मुद्रितः । आगमे तु नवधवाधीता।" २. "नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारि भाष्यं किं तर्हि प्रमत्तगीतमेतत् । वाचको हि
पूर्ववित् कथमेवंविघं आर्षविसंवादिनिबन्नीयात् । सूत्रानवबोधादुपजाताभ्रन्तिना केनापि रचितमेतत् ।"
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