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________________ ३४४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय इस सन्दर्भ में हम पूर्व में ही संकेत कर चुके हैं कि उमास्वाति के काल तक अनेक मान्यताएँ स्थिर नहीं हो पाई थीं। आचार्यों में इन मान्यताओं को लेकर परस्पर मतभिन्य था। साथ ही यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि सिद्धसेन गणि जिन आगमों का सन्दर्भ दे रहे हैं वे वलभी वाचना के आगम हैं और यह स्पष्ट है कि यह वाचना उमास्वाति के बाद हुई है। उमास्वाति का मत यदि किसी वाचना विशेष से मतभेद रखता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे आगम विरोधी थे। जैसा हम संकेत कर चुके हैं कि जिन्हें दिगम्बर परम्परा अपने आगम मान रही है ऐसे प्राचोन शौरसेनी के आगम-तुल्य ग्रन्थ कसायपाहुड़ और षट्खण्डागम में भी परस्पर मतवैभिन्य हैं। कर्मप्रकृतियों के क्षय के प्रश्न को लेकर कसायपाहुड़ की चूलिका और षट्खण्डागम के 'सत्प्ररूपणा' द्वार के मत भिन्न-भिन्न हैं । फिर तो इन्हें भो भिन्न परम्परा का मानना होगा। षट्खण्डागम में स्वयं आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ति के मन्तव्यों की भिन्नता का उल्लेख आया है और उसमें आर्य मंक्षु की मान्यता को अपर्यवसित या अमान्य कहा गया है । ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि दूसरी और तीसरी शताब्दियों में आचार, तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और कर्म सम्बन्धी अवधारणाओं को लेकर जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद थे । क्योंकि उस युग में न तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ था और न मान्यताओं का स्थिरीकरण । यदि श्वेताम्बर आगमों से मान्यता भेद के कारण-उमास्वाति श्वेताम्बर नहीं हैं-यह कहा जा सकता है तो पुण्य-प्रकृति अथवा जिन के परिषहों आदि की भिन्नता को लेकर यह भी कहा जा सकता है वे दिगम्बर भी नहीं हैं। जो तर्क आदरणीय मुख्तार जी उमास्वाति के श्वेताम्बर होने के विरोध में देते हैं, वे ही तर्क समान रूप से उमास्वाति के दिगम्बर होने के विरोध में भी लागू होते है। यह स्मरण रखना चाहिए कि तर्क का जो चाकू १. दोनों के मान्यता भेद के सम्बन्ध में देखें-षट्खण्डागम परिशीलन-पं० बालचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ पृ० १४८-१४९ २. इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा के लिये देखे(अ) कसायपाहुडसुत्त--सं० पं० हीरालाल जैन, प्रकाशक वीर शासन संघ कलकत्ता १९५५ प्रस्तावना पृ० २४-२५ (व) षट्खण्डागम परिशीलन-पं० बालचन्द शास्त्री पृ० ६४६-६४८ (स) षट्खण्डागम धवलाटीका पुस्तक १६ पृ० ५७८' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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