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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३४३ किया है और बताया है कि आगम के प्राकृत वचन के सम्यक् अर्थ को नहीं समझने के कारण ही यह भ्रान्ति हो गई हैं।
यदि हम यह भी मान ले कि भाष्य का यह अंश प्रक्षिप्त न होकर मौलिक ही है, तो भी इससे उनके सम्प्रदाय के निर्धारण में कोई सहायता नहीं मिलती है। क्योंकि भाष्यगत यह मान्यता श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय किसी के पक्ष में नहीं जाती है। इससे इतना ही ज्ञात होता है कि उमास्वाति की कुछ मान्यताएँ इन तीनों परम्पराओं से पृथक् थी। इसका तात्पर्य यह भी है कि वे इन साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के पूर्व हुए हैं।
पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने तत्त्वार्थ भाष्य की श्वेताम्बर मान्य आगमों से असंगति दिखाते हए यह भी लिखा है कि "नवें अध्याय के अन्तिम सत्र में पूलाक, बकुश आदि निग्रन्थों के न्यनतम और अधिकतम श्रुतज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ हैं वे श्वेताम्बर मान्य आगमों से संगति नहीं रखती हैं । जहाँ तक जघन्य श्रुतज्ञान को मान्यता का प्रश्न है वहाँ तक तो भाष्य और श्वेताम्बर मान्य आगमों में संगति है। किन्तु जहाँ उत्कृष्ट श्रतज्ञान सम्बन्धी मान्यता का प्रश्न है, वहाँ भाष्य और श्वेताम्बर मान्य आगमों में अन्तर है। उदाहरण के लिए पुलाक मुनियों का उत्कृष्ट श्रुतज्ञान आगम में नवपूर्व तक बताया गया है जबकि भाष्य में अभिन्न अक्षर दस पूर्व अर्थात् पूर्ण दस पूर्व बताया गया है। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनियों का श्रुतज्ञान आगम में चौदह पूर्व तक बताया गया है, जबकि भाष्य उनके उत्कृष्ट श्रुतज्ञान को दस पूर्व से अधिक नहीं मानता है। इस प्रकार भाष्य और आगमिक मान्यताओं में अन्तर है। २ सिद्धसेन गणि ने इस अन्तर का उल्लेख तो किया है किन्तु उन्होंने आगम से इसकी संगति बिठाने का प्रयत्न नहीं किया, मात्र इतना ही कहकर इस विषय को छोड़ दिया है कि आगम में अन्यथा व्यवस्था है।
सप्तरात्रिकोति सूत्र निर्भेदः । द्वे सप्तरात्रे त्रीणीति सप्तरात्राणीति सूत्रनिर्भेदं कृत्वा पठितमज्ञेन सप्वचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तित्र इति ।
-वही ९।६।७ भाग २ पृ० २०६ १. वही ९।६।७ पृ० २०६ (अन्तिम दो पंक्तियां) २. देखें-जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, ले० पं० जुगलकिशोर
जी मुस्तार, पृ० १४४-१५५ ३. तत्त्वार्याधिगमसूत्र भाष्य टीका (सिद्धसेनगणि ) भाग २, ९/६१/८ पृ० २०६
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