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३४२ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
यह शैली अपनाई है। यह बात हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उमास्वाति के काल में न तो साम्प्रदायिक मान्यताएं ही पूर्णतः स्थिर हो पाई थीं और न आगमिक मान्यताओं में एकरूपता ही थी। अतः ऐसे सामान्य मतभेद बहुत अधिक महत्त्व नहीं रखते हैं। पुनः पर्याप्तियों की संख्या पाँच मानने से यह तो सिद्ध नहीं होता है कि तत्त्वार्थभाष्य और उसके कर्ता दिगम्बर हैं। क्योंकि दिगम्बर भी तो छः पर्याप्ति मानते हैं, हम यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि उमास्वाति के सामने जो आगम रहे हैं वे वलभी में सम्पादित आगम नहीं है, उनके समक्ष वलभी के सम्पादन और संकलन के पूर्व के आगम थे। अतः ऐसे मतभेद स्वाभाविक है, क्योंकि जैन दर्शन में मान्यता सम्बन्धी स्थिरीकरण ५वीं-६वीं शती में हुआ है।
तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य का श्वेताम्बर और उसके मान्य आगमों से अन्तर स्पष्ट करते हुए पं० जुगल किशोर जी मुख्तार लिखते हैं कि तत्त्वार्थ के नवें अध्याय में जो दशधर्म विषयक सूत्र हैं, उसके भाष्य में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का निर्देश है। इन भिक्षु की बारह प्रतिमाओं में सात प्रतिमाएँ क्रमशः एक मास से लेकर सात मास तक की है। तीन प्रतिमाएँ क्रमशः सात रात्रिकी और चौदह रात्रिकी और इक्कीस रात्रिकी हैं। शेष दो प्रतिमाएँ क्रमशः अहोरात्रिकी और एकरात्रिकी है।' सिद्धसेनगणि के इस भाष्य की टीका लिखते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा है कि आगम के अनुसार तो तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिकी मानी गई हैं । चतुर्दशरात्रिकी और एकविंशति रात्रिकी प्रतिमाएं आगम के अनुसार नहीं हैं। इस सन्दर्भ में उनका स्पष्ट कथन है कि यह भाष्य आगम के अनुकूल नहीं है, यह प्रमत्त गीत है। उमास्वाति तो पूर्वो के ज्ञाता थे। वे आगमों से असंगत वचन किस प्रकार लिख सकते थे। सम्भवतः आगम-- सूत्र की अनभिज्ञता से उत्पन्न हुई भ्रांति के कारण किसी ने इस वचन की रचना की है। सिद्धसेनगणि ने यह भ्रान्ति कैसे हुई इसका भी उल्लेख १. "तथा द्वादशभिक्षु-प्रतिमाः मासिक्यादयः आसप्तमासिक्यः सप्त, सप्तचतुर्द
शैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः अहोरात्रिकी एकरात्रिको चेति ।"
-तत्त्वार्थधिगमसूत्र भाष्य टीका (सिद्धसेनगणि) ९।६७ भाग २ प० २०५ २. “सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्र इति नेदं परमार्षवचनानुसारिभाष्य
किं तर्हि ? प्रमत्तगीतमेतत् । वाचकोहि पूर्ववित् कथमेवं विधमार्षविसंवादि निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुषजातभ्रान्तिना केनापि रचितमेतद्वचनकम् । दोच्चा सचराईदिया तइया सत्तराईदिया-द्वितीया सप्तरात्रिको तृतीया
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