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________________ ३२४ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय में भी उपलब्ध है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि नौ लोकांतिक देवों की अवधारणा भी प्राचीन ही है और यह दिगम्बर परम्परा (लोक विभाग) में भी मान्य रही है । अतः इस आधार पर तत्त्वार्थसूत्र को आगमपरम्परा से विरोधी माना जाये, तो वह दोनों परम्परा का ही विरोधी सिद्ध होगा । अपनी परम्परा को भी सम्यक् प्रकार जाने बिना विद्वानों द्वारा तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बर सिद्ध करने के प्रयास में ऐसे तर्क देना समुचित नहीं है। जो श्वेताम्बरों में अरिष्ट-नामक लोकान्तिक देवों को मध्य में मानने की अवधारणा है, वह भी तिलोयपण्णति में उद्धृत लोकविभाग के आचार्य के मत से सहमति रखती है, यद्यपि आशय को समग्र प्रकार से न समझने के कारण तिलोयपण्णत्ति के सम्पादक ने उस मूलपाठ को सम्यक् रूप में नहीं रखा है। पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने भाष्य और श्वेताम्बर आगम में विरोध दिखाते हुए एक अन्य तर्क यह दिया है कि "तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय में लोकान्तिक देवोंका निवास स्थान 'ब्रह्मलोक' नाम का पाँचवाँ स्वर्ग बतलाया गया है और 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिका' इस २५वें सूत्र के निम्न भाष्य में यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि ब्रह्मलोक में रहने वाले ही लोकान्तिक होते हैं अन्य स्वर्गों में या उनसे परे अवेयकादिमें लोकान्तिक नहीं होते "ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः।" ब्रह्मलोक में रहने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागर की और जघन्य स्थिति सात सागर से कुछ अधिक की बतलाई गई, जैसा कि सूत्र नं. ३७ और ४२ और उनके निम्न भाष्यांशों से प्रकट है "ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेत्यर्थः।" "माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तवे जघन्या।" इससे स्पष्ट है कि सूत्र तथा भाष्य के अनुसार ब्रह्मलोक के देवों की उत्कृष्ट आयु दस सागर की और जघन्य आयु सात सागर से कुछ अधिक होती है। क्योंकि लोकान्तिक देवों की आयु का अलग निर्देश करने वाला कोई विशेष सूत्र भी श्वे० सत्रपाठ में नहीं है। परन्तु श्वे० आगम में लोकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य दोनों ही प्रकार की आयु की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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