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________________ तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : ३२५ स्थिति आठ सागर को बतलाई है जैसाकि 'स्थानांग' और 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के निम्न सूत्र से प्रकट है "लोगंतिकदेवाणं जहण्णमुक्कोसेणं अट्टसागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ।" - स्थानांग, स्थान ८, समवायांग, ६२३, व्याख्याप्रज्ञप्ति, श० ६ । ३०५ ऐसी हालत में सूत्र और भाष्य दोनों का कथन श्वे० आगम के साथ संगत न होकर स्पष्ट विरोध को लिये हुए है । दिगम्बर आगम के साथ भी उसका कोई मेल नहीं है; क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी लोकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आठ सागर की मानी है और इसी से दिगम्बर सूत्रपाठ में "लोकान्तिवानामष्टो सागरोपमाणि सर्वेषाम् " यह यह एक विशेष सूत्र लोकान्तिक देवों की आयु के स्पष्ट निर्देश को लिये.. हुए है। मुख्तार जो की इस चर्चा का सार यह है कि भाष्य में लोकान्तिक देवोंको ब्रह्मलोक का निवासी बताया गया है और ब्रह्मलोक के देवों की भाष्य में आयु मर्यादा अधिकतम दससागरोपम और न्यूनतम सात सागरोपम बताई गई है अतः लोकान्तिक देवों की भी यही आयु मर्यादा होगी। किन्तु श्वेताम्बर आगमों में लोकान्तिक देवों की आयु आठ सागरोपम बताई गई है, इस प्रकार उनकी दृष्टि में सूत्र और भाष्य का कथन श्वेताम्बर आगमों के साथ संगत नहीं है । किन्तु यह उनका निरा भ्रम है । जहाँ ब्रह्मलोक के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु की चर्चा है वहाँ सामान्य कथन है । जबकि लोकान्तिक देवों की चर्चा एक विशिष्ट कथन है । लोकान्तिकदेव ब्रह्मलोक के देवों का एक छोटा सा विभाग है पुनः जब लोकान्तिक देवों की आयु ब्रह्मलोक के जघन्य और उत्कृष्ट आयुसीमा के अन्तर्गत हो है तो उसका आगमों के साथ विरोध कैसे हुआ ? विरोध तो तब होता जब उनकी आयु इसो आयु सोमा वर्ग यह बात अलग है कि दिगम्बर परम्परा ने उसके लिए एक स्वतंत्र सूत्र बना लिया किन्तु यह सूत्र भी श्वेताम्बर मान्य आगमों के विरुद्ध नहीं है, पुनः यह सूत्र स्पष्टता की दृष्टि से हो बनाया गया है, जो यही सिद्ध करता है कि तत्त्वार्थ सूत्र का सर्वार्थसिद्धि का दिगम्बर मान्य पाठ परिष्कारित है । से भिन्न होती । (६) तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति के बन्ध के कारणों की संख्या को लेकर १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशदप्रकाश पं० जुगल किशोर मुख्तार, प्र ० १३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002068
Book TitleJain Dharma ka Yapniya Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Religion
File Size10 MB
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